मोक्षपाहुड गाथा 36
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो योगी जिनदेव के मत से रत्नत्रय की आराधना करता है, वह आत्मा का ध्यान करता है -
रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण ।
सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो ।।३६।।
रत्नत्रयमपि योगी आराधयति य: स्फुटं जिनवरमतेन ।
स: ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देह: ।।३६।।
रतनत्रय जिनवर कथित आराधना जो यति करें ।
वे धरें आतम ध्यान ही संदेह इसमें रंच ना ।।३६।।
अर्थ - जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेव के मत की आज्ञा से रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की निश्चय से आराधना करता है वह प्रगट रूप से आत्मा का ही ध्यान करता है, क्योंकि रत्नत्रय आत्मा का गुण है और गुण-गुणी में भेद नहीं है । रत्नत्रय की आराधना है वह आत्मा की ही आराधना है, वह ही परद्रव्य को छोड़ता है, इसमें सन्देह नहीं है ।।३६।।
भावार्थ - सुगम है ।।३६।।