मोक्षपाहुड गाथा 51
From जैनकोष
आगे जीव के परिणाम की स्वच्छता को दृष्टान्त पूर्वक दिखाते हैं -
जह फेलहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो ।
तह रागादिविजुत्तो जीवा हवदि हु अणण्णविहो ।।५१।।
यथा स्फेटकमणि: विशुद्ध: परद्रव्ययुत: भवत्यन्य: स: ।
तथा रागादिवियुक्त: जीव: भवति स्फुटन्यान्यविध: ।।५१।।
फेटकमणिसम जीव शुध पर अन्य के संयोग से ।
वह अन्य-अन्य प्रतीत हो, पर मूलत: है अनन्य ही ।।५१।।
अर्थ - जैसे स्फेटकमणि विशुद्ध है, निर्मल है, उज्ज्वल है वह परद्रव्य जो पीत, रक्त, हरित पुष्पादिक से युक्त होने पर अन्य सा दीखता है, पीतादिवर्णयी दीखता है वैसे ही जीव विशुद्ध है स्वच्छ स्वभाव है, परन्तु यह (अनित्य पर्याय में अपनी भूल द्वारा स्व से च्युत होता है तो) रागद्वेषादिक भावों से युक्त होने पर अन्य-अन्य प्रकार हुआ दीखता है, यह प्रगट है ।
भावार्थ - यहाँ ऐसा जानना है कि रागादि विकार है वह पुद्गल के हैं और ये जीव के ज्ञान में आकर झलकते हैं तब उनसे उपयुक्त होकर इसप्रकार जानता है कि ये भाव मेरे ही हैं, जबतक इनका भेदज्ञान नहीं होता है तबतक जीव अन्य अन्य प्रकार-रूप अनुभव में आता है । यहाँ स्फेटकमणि का दृष्टान्त है उसके अन्य द्रव्य पुष्पादिक का डांक लगता है, तब अन्य सा दीखता है, इसप्रकार जीव के स्वच्छभाव की विचित्रता जानना ।।५१।।