मोक्षपाहुड गाथा 52
From जैनकोष
इसीलिए आगे कहते हैं कि जब तक मुनि के (मात्र चारित्र दोष में) राग-द्वेष का अंश होता है तबतक सम्यग्दर्शन को धारण करता हुआ भी ऐसा होता है -
देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो ।
सम्मत्तमुव्वहंतो झाणरओ होदि जोई सो ।।५२।।
देवे गुरौ च भक्त: साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्त: ।
सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरत: भवति योगी स: ।।५२।।
देव-गुरु का भक्त अर अनुरक्त साधक वर्ग में ।
सम्यक्सहित निज ध्यानरत ही योगि हो इस जगत में ।।५२।।
अर्थ - जो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्त्व को धारण करता है और जबतक यथाख्यात चारित्र को प्राप्त नहीं होता है तबतक अरहंत सिद्ध देव में और शिक्षा दीक्षा देनेवाले गुरु में तो भक्तियुक्त होता ही है इनकी भक्ति विनय सहित होती है और अन्य संयमी मुनि अपने समान धर्म सहित हैं उनमें भी अनुरक्त है, अनुरागसहित होता है वही मुनि ध्यान में प्रीतिवान् होता है और मुनि होकर भी देव-गुरु-साधर्मियों में भक्ति व अनुराग सहित न हो उसको ध्यान में रुचिवान नहीं कहते हैं, क्योंकि ध्यान करनेवाले के, ध्यानवाले से रुचि प्रीति होती है, ध्यानवाले न रुचें तब ज्ञात होता है कि इसको ध्यान भी नहीं रुचता है इसप्रकार जानना चाहिए ।।५२।।