मोक्षपाहुड गाथा 55
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्ष के निमित्त भी राग हो तो वह राग भी आस्रव का कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता है -
आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि ।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीदु ।।५५।।
आस्रवहेतुश्च तथा भाव: मोक्षस्य कारणं भवति ।
स: तेन तु अज्ञानी आत्मस्वाभावात्तु विपरीत: ।।५५।।
निज भाव से विपरीत अर जो आस्रवों के हेतु हैं ।
जो उन्हें मानें मुक्तिमग वे साधु सचमुच अज्ञ हैं ।।५५।।
अर्थ - जैसे परद्रव्य में राग को कर्मबंध का कारण पहिले कहा वैसे ही राग भाव यदि मोक्ष के निमित्त भी हो तो आस्रव का ही कारण है, कर्म का बंध ही करता है; इसकारण से जो मोक्ष को परद्रव्य की तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह जीव मुनि भी अज्ञानी है, क्योंकि वह आत्मस्वभाव से विपरीत है, उसने आत्मस्वभाव को नहीं जाना है ।
भावार्थ - मोक्ष तो सब कर्मो से रहित अपना ही स्वभाव है अपने को सब कर्मो से रहित होना है इसलिए यह भी रागभाव ज्ञानी के नहीं होता है, यदि चारित्रमोह का उदयरूप राग हो तो उस राग को भी बंध का कारण जानकर रोग के समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही और इस रागभाव को भला समझकर आप करता है तो अज्ञानी है । आत्मा का स्वभाव सब रागादिकों से रहित है उसको इसने नहीं जाना, इसप्रकार रागभाव को मोक्ष का कारण और अच्छा समझकर करते हैं, उसका निषेध है ।।५५।।