योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 379
From जैनकोष
भवाभिनन्दी, मुक्ति का द्वेषी -
कल्मष-क्षयतो मुक्तिर्भोग-सङ्गमवर्जिनाम् ।
भवाभिनन्दिनामस्यां विद्वेषो मुग्धचेतसाम् ।।३७९।।
अन्वय :- भोग-सङ्गम-वर्जिनां कल्मष-क्षयत: मुक्ति: (जायते) । मुग्धचेतसां भवाभिनन्दिनां अस्यां (मुक्त्यां) विद्वेष: (वर्तते) ।
सरलार्थ :- जो पंचेंद्रियों के स्पर्शादि भोग्यरूप विषयों के संपर्क से रहित हैं अथवा इंद्रिय- विषयों के भोगों से और संपूर्ण बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा विरक्त हैं, उन मुनिराजों के ज्ञानावरणादि आठों कर्मो का नाश होने से उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है । मूढचित्त अर्थात् मिथ्यादृष्टि भवाभिनन्दी जीवों का इस मुक्ति से अतिशय द्वेषभाव रहता है ।