योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 403
From जैनकोष
दोष की अनिवार्यता चौथा कारण -
न दोषेण बिना नार्यो यत: सन्ति कदाचन ।
गात्रं च संवृतं तासां संवृतिर्विहिता तत: ।।४०३।।
अन्वय :- यत: दोषेण विना नार्य: कदाचन न सन्ति । तासां च गात्रं संवृति: विहिता (भवति)। तत: (तेभ्य:) संवृतं (व्यवस्था प्रोक्तम्) ।
सरलार्थ :- क्योंकि स्त्रियाँ पूर्वोक्त अनेक दोषों में से किसी न किसी दोष के बिना कदाचित् भी नहीं होती इसलिए उनका गात्र - अंग-उपांग स्पष्टत: संवृत्त अर्थात् स्वभाव से ही वस्त्र से ढका हुआ रहता है; इसलिए उनके लिये वस्त्र-आवरण सहित लिंग की व्यवस्था की गई /कही गयी है ।