योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 455
From जैनकोष
व्यवहार चारित्र शुद्धात्मा के ध्यान में कारण -
(वंशस्थ)
इदं चरित्रं विधिना विधीयते
तत: शुभध्यान-विरोधि-रोधकम् । विविक्त-मात्मान-मनन्त-मीशते न साधवो ध्यातुृतेsमुना यत:।।४५५।।
अन्वय :- यत: साधव: अमुना (व्यवहारचारित्रेण) ऋते विविक्तं अनन्तं आत्मानं ध्यातुं न ईशते तत: इदं शुभध्यान-विरोधि-रोधकं चरित्रं विधिना विधीयते ।
सरलार्थ :- चूँकि साधक व्यवहारचारित्र के बिना शुद्ध-अनन्त आत्मा का ध्यान करने में समर्थ नहीं होते हैं, अत: वे अशुभध्यान को रोकने में समर्थ ऐसे इस व्यवहारचारित्र का विधिपूर्वक आचरण करते हैं ।