योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 500
From जैनकोष
व्यक्तरूप परमज्योति का स्वरूप -
यत्रासत्यखिलं ध्वान्तमुद्द्योत: सति चाखिल: ।
अस्त्यपि ध्वान्तमुद्द्योतस्तज्ज्योति: परमात्मन: ।।५०१।।
अन्वय : - यत्र (यस्य) असति अखिलं ध्वान्तं (भवति) च (यस्य) सति अखिल: उद्योत: (भवति)। ध्वान्तं अपि उद्योत: अस्ति, तत् आत्मन: परं ज्योति: (अस्ति) ।
सरलार्थ :- जिसके विद्यमान न होनेपर सब अंधकार है अर्थात् सब ज्ञेय ज्ञात नहीं होते और विद्यमान होनेपर सब उद्योतरूप है अर्थात् लोकालोक में व्याप्त अनंततानंत ज्ञेय युगपत/ एकसाथ विशदरूप से ज्ञात होते हैं; इतना ही नहीं अंधकार भी उद्योतरूप से परिणत हो जाता है अर्थात् अंधकार भी अंधकाररूप से जानने में आता है, वह आत्मा की परमज्योति अर्थात् केवलज्ञान है ।