योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 507
From जैनकोष
आत्मभावना के अभ्यास की प्रेरणा -
तेनात्मभावनाभ्यासे स नियोज्यो विपश्चिता ।
येनात्ममयतां याति निर्वृत्यापरभावत: ।।५०८।।
अन्वय : - येन अपरभावत: निर्वृत्य आत्ममयतां याति तेन विपश्चिता स: (आत्मा) आत्मभावनाभ्यासे नियोज्य: ।
सरलार्थ :- चूँकि परभाव से निवृत्त होकर अर्थात् परभावों को छोड़कर ही आत्मा आत्मरूपता को प्राप्त होता है; इसलिए विद्वानों को यही योग्य है कि वे अपनी आत्मा को आत्मभावना में लगावें ।