योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 538
From जैनकोष
ग्रंथ तथा ग्रंथकार की प्रशस्ति -
(मन्द्राकान्ता)
दृष्ट्वा सर्वं गगननगर-स्वप्न-मायोपमानं
नि:सङ्गात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारम् । ब्रह्मप्राप्त्यै परममकृतं स्वेषु चात्म-प्रतिष्ठं नित्यानन्दं गलित-कलिलं सूक्ष्ममत्यक्ष-लक्ष्यम् ।।५३९।।
अन्वय : - सर्वं गगननगर-स्वप्न-मायोपमानं दृष्ट्वा नि:सङ्गात्मा अमितगति: स्वेषु च आत्म-प्रतिष्ठं, गलित-कलिलं, सूक्ष्मं अत्यक्ष-लक्ष्यं नित्यानन्दं (च) परमं अकृतं ब्रह्मप्राप्त्यै इदं योगसारं प्राभृतं (विरचितम्) ।
सरलार्थ :- आकाश में बादलों से बने हुए नगर के समान, स्वप्न में देखे हुए दृश्यों के सदृश तथा इन्द्रजाल में प्रदर्शित मायामय चित्रों के तुल्य सारे दृश्य जगत् को देखकर नि:संगात्मा अमितगति ने उस परम ब्रह्म को प्राप्त करने के लिये जो कि आत्माओं में आत्म-प्रतिष्ठा को लिये हुए हैं, कर्म- मल से रहित है, सूक्ष्म है, अमूर्तिक है, अतीन्द्रिय है और सदा आनन्दरूप है, यह योगसार प्राभृत रचा है, जो कि योग-विषयक ग्रन्थों में अपने को प्रतिष्ठित करनेवाला योग का प्रमुख ग्रन्थ है, निर्दोष है, अर्थ की दृष्टि से सूक्ष्म है - गम्भीर है - अनुभव का विषय है और नित्यानन्दरूप है - इसको पढ़ने-सुनने से सदा आनन्द मिलता है ।