योगसार - जीव-अधिकार गाथा 21
From जैनकोष
ज्ञेयक्षिप्त ज्ञान की व्यापकता -
क्षीरक्षिप्तं यथा क्षीरमिन्द्रनीलं स्वतेजसा ।
ज्ञेयक्षिप्तं तथा ज्ञानं ज्ञेयं व्याप्नोति सर्वत: ।।२१।।
अन्वय :- यथा क्षीरक्षिप्तं इन्द्रनीलं सर्वत: स्वतेजसा क्षीरं व्याप्नोति तथा ज्ञेयक्षिप्तं ज्ञानं ज्ञेयं(सर्वत: व्याप्नोति) ।
सरलार्थ :- जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनीलमणि अपने तेज/प्रभा से दूध में सब ओर से व्याप्त हो जाता है; उसीप्रकार ज्ञेय के मध्यस्थित ज्ञान अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से ज्ञेय समूह को पूर्णत: व्याप्त कर ज्ञेयों को प्रकाशित करता है ।