योगसार - जीव-अधिकार गाथा 55
From जैनकोष
औदयिक भावों को जीव का स्वभाव मानने से आपत्ति -
राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह-पुरस्सरा: ।
भवन्त्यौदयिका दोषा: सर्वे संसारिण: सत: ।।५५ ।।
यदि चेतयितु: सन्ति स्वभावेन क्रुधादय: ।
भवन्तस्ते विमुक्तस्य निवार्यन्ते तदा कथम् ।।५६ ।।
अन्वय :- संसारिण: सत: राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह-पुरस्सरा: सर्वे दोषा: औदयिका: भवन्ति । यदि क्रुधादय: चेतयितु: स्वभावेन सन्ति तदा ते विमुक्तस्य भवन्त: कथं निवार्यन्ते ?
सरलार्थ :- संसारी जीव के जो राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोह आदि दोष होते हैं वे सब भाव कर्मो के उदय के निमित्त से होते हैं, अत: औदयिकरूप हैं, स्वभावरूप नहीं । यदि क्रोधादिक दोषों का होना जीव के स्वभावस्वरूप माना जाय तो उन दोषों का मुक्त जीव के भी रहने/होने का निषेध कैसे किया जा सकता है? निषेध नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्वभाव का कभी अभाव नहीं हो सकता ।