योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 264
From जैनकोष
कर्म-रज को धो डालनेवाले मुनिराज का स्वरूप -
अन्याचारपरावृत्त: स्वतत्त्वचरणादृत: ।
संपूर्णसंयमो योगी विधुनोति रज: स्वयम् ।।२६४।।
अन्वय :- अन्य-आचार-परावृत्त: स्व-तत्त्व-चरणादृत: सम्पूर्ण-संयम: योगी स्वयं (कर्म) रज: विधुनोति ।
सरलार्थ :- शुभाशुभरूप अन्य आचरण से सर्वथा विमुख, स्वतत्त्व अर्थात् निज भगवान आत्मा में आचरण करने में सावधान एवं उत्साही, परिपूर्ण संयमी योगिराज अन्य की सहायता के बिना स्वयं कर्मरूपी रज को विशेष रीति से धो डालते हैं ।