योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 188
From जैनकोष
अज्ञानी पुण्य-पाप में भेद मानता है -
सुखासुख-विधानेन विशेष: पुण्य-पापयो: ।
नित्य-सौख्यमपश्यद्भिर्मन्यते मुग्धबुद्धिभि: ।।१८८।।
अन्वय :- नित्य-सौख्यं अपश्यद्भि: मुग्धबुद्धिभि: सुख-असुख-विधानेन पुण्य-पापयो: विशेष: मन्यते ।
सरलार्थ :- जो जीव नित्य अर्थात् शाश्वत, सच्चे निराकुल सुख से अपरिचित हैं, वे ही अज्ञानी इंद्रियजन्य सुख-निमित्तक कर्म को पुण्य और दु:ख-निमित्तक कर्म को पाप, ऐसा भेद जानते/मानते हैं ।