योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 330
From जैनकोष
मुक्त जीव का स्वरूप -
निरस्तापर-संयोग: स्व-स्वभाव-व्यवस्थित: ।
सर्वौत्सुक्यविनिर्मुक्त: स्तिमितोदधि-सन्निभ:।।३३०।।
एकान्त-क्षीण-संक्लेशो निष्ठितार्थो निरञ्जन: ।
निराबाध: सदानन्दो मुक्तावात्मावतिष्ठते ।।३३१।।
अन्वय :- मुक्तौ आत्मा निरस्त-अपर-संयोग:, स्व-स्वभाव-व्यवस्थित:, स्तिमितउदि ध-सन्निभ:, सर्वौत्सुक्य-विनिर्मुक्त:, एकान्त-क्षीण-संक्लेश:, निष्ठितार्थ:, निरञ्जन:, निराबाध: सदानन्द: (च) अवतिष्ठते ।
सरलार्थ :- मुक्त अवस्था में अर्थात् सिद्धालय में आत्मा परसंयोग से रहित, स्व-स्वभाव में अवस्थित, निस्तरंग समुद्र के समान, सर्व प्रकार की उत्सुकता से मुक्त, सर्वथा क्लेश वर्जित, कृतकृत्य, निष्कलंक, निराबाध और सदा आनंदरूप तिष्ठता है ।