योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 348
From जैनकोष
मोहान्धकार को धिक्कार -
बडिशामिषवच्छेदो दारुणो भोग-शर्मणि ।
सक्तास्त्यजन्ति सद्ध्यानं धिगहो! मोह-तामसम् ।।३४८।।
अन्वय :- भोग-शर्मणि बडिशामिषवत् दारुण: छेद: (भवति; तथापि ये भोग-शर्मणि) आसक्ता: (सन्ति ते) सद्ध्यानं त्यजन्ति, अहो ! मोह - तामसं धिक् ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार शिकारी की बंशी में लगे हुए मांस के टुकड़े को खाने की इच्छा से मछली को कण्ठच्छेद से अतिशय दु:ख होता है; उसीप्रकार सर्वोत्तम ज्ञानरूपी बीज को पाकर भी इंद्रिय-सुख में आसक्त/दु:खी मनुष्य जिस मोह के कारण सद्ध्यान का त्याग करते हैं, उस मोहरूपी अंधकार को धिक्कार हो ।