रसत्याग
From जैनकोष
निद्रा और इंद्रिय विजय के लिए किया जानेवाला एक बाह्य तप । इसमें नित्य आलस्य रहित होकर दूध, घी, गुड़ आदि रसों का त्याग किया जाता है । इसका अपर नाम रसपरित्याग है । महापुराण 20. 177, हरिवंशपुराण - 64.24, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.35
निद्रा और इंद्रिय विजय के लिए किया जानेवाला एक बाह्य तप । इसमें नित्य आलस्य रहित होकर दूध, घी, गुड़ आदि रसों का त्याग किया जाता है । इसका अपर नाम रसपरित्याग है । महापुराण 20. 177, हरिवंशपुराण - 64.24, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.35