राम
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
महापुराण/ सर्ग/श्लोक नं.
राजा दशरथ के पुत्र थे (25/22) स्वयंवर में सीता से विवाह किया (25/245) माता केकयी द्वारा वनवास दिया गया (31/191) वनवास काल में सीताहरण होने पर रावण से युद्ध कर रावण को मारकर सीता को प्राप्त किया (76/33) परंतु लौटने पर लोकापवाद से सीता का परित्याग किया (97/108) अंत में भाई लक्ष्मण की मृत्यु से पीड़ित हो दीक्षा ग्रहण कर (119/24-27) मोक्ष प्राप्त की (122/67) इनका अपरनाम ‘पद्म’ था। ये 8वें बलदेव थे। (बलदेव से सम्बंधित विशेष जानकारी के लिए देखें शलाका पुरुष - 3)।
पुराणकोष से
(1) बलभद्र । इनके सम्यम्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप के समान लक्ष्मी बढ़ाने वाले गदा, रत्नमाला, मुसल और हल ये चार रत्न थे । अवसर्पिणी काल में ये नौ हुए हैं । इन विजय प्रथम बलभद्र था । शेष आठ बलभद्र थे― अचलस्तोक, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदिषेण, नंदिमित्र, पद्म और राम । महापुराण 7.82, 57.86-89, 93, 58.83, 59.63, 71, 60. 63, 61. 70, 65.176-177, 66.106-107, 67.89, 70. 319, हरिवंशपुराण - 32.10, वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 111 देखें बलभद्र
(2) राम की जीवन कथा जैन-पुराणों में दो प्रकार की मिलती है । एक कथा आचार्य रविषेण के पद्मपुराण में है । वहाँ राम को पद्म कहा गया है अत: वह पद्म के प्रसंग में दे दी गयी है । महापुराण में पद्म को राम हो कहा गया है । उनकी कथा इस प्रकार मिलती है― तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में हुए आठवें बलभद्र । दूसरे पूर्वभव में ये भरतक्षेत्र के मलय देश में रत्नपुर नगर के राजा प्रजापति के मंत्री विजय के पुत्र और प्रथम पूर्वभव में देव थे । स्वर्ग से चयकर भरतक्षेत्र में ये वाराणसी नगरी के राजा दशरथ की रानी सुबाला के गर्भ में आये और फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी के दिन मघा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ । इनकी तेरह हजार वर्ष की आयु थी । इनका नाम राम रखा गया था । रानी कैकयी का पुत्र लक्ष्मण इनका भाई था दोनों भाई पंद्रह धनुष ऊँचे, बत्तीस लक्षणों से सहित, वज्रवृषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान के धारी थे । इनका शुभ्र वर्ण था । अयोध्या के राजा के मरने पर इनके पिता अयोध्या आये और वही रहने लगे थे भरत और शत्रुघ्न का जन्म अयोध्या में ही हुआ था । राजा जनक ने यदा की रक्षा के लिए इन्हें मिथिला बुलाया था । यज्ञविधि पूर्ण कर के जनक ने इनका विवाह अपनी पुत्री सीता से कर दिया । वहाँ से लौटने पर दशरथ ने इनके सिर पर स्वयं राजमुकुट बाँधा तथा लक्ष्मण को युवराज बनाया था । राम, लक्ष्मण और सीता वनक्रीड़ा हेतु चित्रकूट गये । इसी बीच नारद ने सीता के सौंदर्य की प्रशंसा करके रावण को उसमें आकृष्ट किया । रावण ने जिस किसी प्रकार सीता को प्राप्त करना चाहा उसकी आज्ञा से शूर्पणखा राम के पास गई इन्हें देख वह मुग्ध हुई । वह सीता को रावण में आकृष्ट न कर सकी । पश्चात् रावण की आज्ञा से मारीच हरिण का शिशु रूप बनाकर सीता के सामने आया । सोता उसे देखकर उस पर आकृष्ट हुई । उसने राम से हरिण-शिशु का पकड़ कर लाने के लिए कहा । राम उसे पकड़ने गये । इधर राम का रूप धारण कर रावण सीता के पास आया और छल से सीता को साल की मे बैठाकर हर ले गया । आकाशगामिनी विद्या नष्ट हो जाने के भय से रावण ने शीलवती पतिव्रता सीता का स्पर्श नहीं किया । रात-भर राम वन में भटकते रहे । प्रात: लौटकर परिजनों से मिले । सीता के न मिलने से ये मूर्च्छित हो गये । इधर दशरथ को स्वप्न में रावण द्वारा सीता का हरण दिखाई दिया । उन्होंने पत्र लिखकर अपने स्वप्न का बात राम को भेजी । राम को पत्र से सीता के लंका में होने का वृत्त मिला । वे चिंतामग्न हो गये । इसी समय सुग्रीव और हनुमान वहाँ आये । उन्होंने आगमन का कारण बताया । इन्होंने सब कुछ समझने के पश्चात् सुग्रीव को बाली द्वारा अपहृत किष्किंधा का राजा बनाने का आश्वासन दिया और उन्होंने अपनी चिंता से उनको अवगत किया । हनुमान ने उन्हें कहा कि यदि आज्ञा दें तो वे सीता का पता लगाने लंका चले जावेंगे । तब इन्होंने एक पिटारे मे अपने परिचायक चिह्न मुद्रिका आदि सामग्री देकर हनुमान को सीता का पता लगाने भेजा । हनुमान लंका गया । वहाँ भ्रमर का आकार बनाकर वह सीता से मिला । उसने मुद्रिका सीता को दी और धैर्य बँधाया । इसके पश्चात् हनुमान् के लंका से लौटकर आने पर उससे सीता के समाचार ज्ञात करके उसे इन्होंने अपना सेनापति और सुग्रीव को युवराज बनाया । पश्चात् राम ने पुन: हनुमान को लंका भेजकर विभीषण को संदेश भेजा कि वह रावण को समझाये । हनुमान ने लंका जाकर सब कुछ कहा । यह भी बताया कि राम के अनुराग से पचास करोड़ चौरासी लाख भूमिगोचरी और तीन करोड़ विद्याधर-सेना उनके पास आ गई है । रावण यह सुनकर कुपित हो गया और उसने हनुमान का निरादर किया । पश्चात् हनुमान लंका से आये और उन्होंने राम से यथावत् सर्व वृत्त कहा । इतना होने पर भी राम चित्रकूट वन में ही रहे । इसी बीच इन्होंने मंदोमत्त बाली का लक्ष्मण के द्वारा वध कराया । इसके पश्चात् ये किष्किंध नगर में रहे । यहाँ इनकी चौदह अक्षौहिणी सेनाएँ इकट्ठी हो गयी थी । इन्होंने लक्ष्मण, सुग्रीव और हनुमान को साथ लेकर सेना सहित लंका की ओर प्रस्थान किया । रावण के प्रतिकूल व्यवहार से रुष्ट होकर विभीषण भी इनका पक्षधर हो गया था । समुद्रतट पर पहुँचने के पश्चात् इन्होंने सुग्रीव और हनुमान से गरुडवाहिनी, सिंहवाहिनी, बंधमोचिनी और हननावरणी विद्याएँ प्राप्त की तथा प्रज्ञप्ति विद्या से निर्मित विमानों के द्वारा अपनी सेना लंका भेजी । वहाँ रावण से युद्ध हुआ । रावण ने राम को मोहित करने माया से सीता का सिर काटकर दिखाया किंतु विभीषण ने इन्हें इसे रावण का माया कृत्य बताकर सावधान किया । पश्चात् इन्होंने रावण से युद्ध किया । रावण ने चक्र चलाया किंतु चक्र लक्ष्मण के दायें हाथ में आकर स्थिर हो गया । तब लक्ष्मण ने इसी चक्र से रावण का सिर काट दिया । लंका विजय के पश्चात् राम अशोक वन में सीता से मिले । एक दूसरे को अपने-अपने दुःख बताकर सुखी हुए । इन्होंने सीता को निर्दोष जानकर स्वीकार किया । इनकी आठ हजार रानियाँ थी । सोलह हजार देश और राजा इनके अधीन थे । ये अपराजित हलायुध, अमोध बाण, कौमुदी गदा और रत्नावतंसिका माला इन चार रत्नों के धारी थे । इन्होंने शिवगुप्त मुनि से धर्मोपदेश सुना और श्रावक के व्रत लिये । कुछ दिन अयोध्या रहकर वहाँ का राज्य भरत और शत्रुघ्न को देकर वाराणसी चले गये । लक्ष्मण इनके साथ थे । विजयराम इनका पुत्र था । असाध्य रोग के कारण लक्ष्मण के मरने पर उनके पृथिवीचंद्र पुत्र को राज्य देकर उसे इन्होंने पट्ट बाँधा तथा सीता के विजयराम आदि आठ पुत्रों में सात बड़े पुत्रों के राज्यलक्ष्मी स्वीकार न करने पर सबसे छोटे पुत्र अजितंजय को युवराज बनाया । पश्चात् मिथिला देश उसे देकर ये विरक्त हो गये थे । शिवगुप्त केवली से निदान-शल्य से लक्ष्मण का मरण ज्ञात करके ये लक्ष्मण से भी निर्मोही हुए और पाँच सौ राजाओं तथा एक सौ अस्सी पुत्रों के साथ संयमी हो गये । सीता और पृथिवी सुंदरी ने भी श्रुतवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कर ली थी । ये और हनुमान् श्रुतकेवली हुए । तदनुसार छद्मस्थ अवस्था के तीन सौ पचानवे वर्ष बाद घातिया कर्मों का क्षय करके ये केवली हुए । इसके पश्चात् छ: सौ वर्ष बाद फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी के दिन प्रात: वेला में सम्मेदशिखर पर ये अघातिया कर्मों को नाश करके सिद्ध हुए । महापुराण 67.89-91 , 146-154, 164-167, 180-181, 68.34-721
पद्मपुराण के अनुसार रामचरित के लिए देखें पद्म - 21