रेचक प्राणायाम
From जैनकोष
ज्ञानार्णव/29/3 त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः । पूरकः कुंभकश्चैव रेचकस्तदनंतरम् ।29। = पूर्वाचार्यों ने इस पवन के स्तंभन स्वरूप प्राणायाम को लक्षण भेद से तीन प्रकार का कहा है - पूरक, कुंभक और रेचक ।
ज्ञानार्णव/29/10,17 शनैः शनैर्मनोऽजस्रं वितंद्रं सह वायुना । प्रवेश्य ह्रदयांभोजकर्णिकायां नियंत्रयेत् ।10। अचिंत्यमतिदुर्लक्ष्यं तन्मंडलचतुष्टयम् । स्वसंवेद्यं प्रजायेत महाभ्यासात्कथंचन ।17। = जिस समय पवन को तालुरंध्र से खेंचकर प्राण को धारण करै, शरीर में पूर्णतया थामैं सो पूरक है, और नाभि के मध्य स्थिर करके रोके सो कुंभक है, तथा जो पवन को कोठे से बड़े यत्न से बाहर प्रक्षेपण करे सो रेचक है, इस प्रकार नासिका ब्रह्म के जानने वाले ब्रह्म पुरुषों ने कहा है ।1-2। इस पवन का अभ्यास करने वाला योगी निष्प्रमादी होकर बड़े यत्न से अपने मन को वायु के साथ मंद-मंद निरंतर हृदय कमल की कर्णिका में प्रवेश कराकर वहीं ही नियंत्रण करै ।10। यह मंडल का चतुष्टय (पृथ्वी आदि) है, सो अचिंत्य है, तथा दुर्लभ्य है, इस प्राणायाम के बड़े अभ्यास से तथा बड़े कष्ट से कई प्रकार का अनुभव गोचर है ।17।
अधिक जानकारी के लिये देखें प्राणायाम - 2।