लाक्षा वाणिज्यकर्म
From जैनकोष
सागार धर्मामृत/5/21-23 की टीका लाक्षाया: सूक्ष्मत्रसजंतुघातानंतकायिकप्रवालजालोपमर्दाविनाभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टंगणमन:शिलासकूमालिप्रभृतीनां बाह्यजीवघातहेतुत्वेन गुग्गुलिकाया धातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन तद्विक्रयस्य पापाश्रयत्वात्
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लकड़ी के कीड़े जिन छोटे-छोटे पत्तों पर बैठते हैं, तथा उनमें जो सूक्ष्म त्रस होते हैं उनके घात के बिना लाख पैदा ही नहीं होती। अत: लाख का और इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गूगल, धाय के फूल व छाल जिससे मद्य बनता है आदि पदार्थों का व्यापार लाक्षा वाणिज्य में गर्भित है।
अधिक जानकारी के लिए देखें सावद्य - 5।