वचन शुद्धि
From जैनकोष
वाक् शुद्धि का लक्षण
मूलाचार/853-861 भासं विणयविहूणं घम्मविरोही विवज्जये वयणं। पुच्छिदमपुच्छिदं वा णवि ते भासंति सप्पुरिसा।853। अच्छीहिं य पेच्छंता कण्णेहिं य बहुविहा य सुणमाणा। अत्थंति भूयभूया ण ते करंति हु लोइयकहाओ।854। विकहाविसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चिंतंति। धम्मे लद्धमदीया विकहा तिविहेण वज्जंति।857। कुक्कुयकंदप्पाइय हास उल्लावणं च खेडं च। मददप्पहत्थवट्टिं ण करेंति मुणी ण कारेंति।858। ते होंति णिव्वियारा थिमिदमदी पदिट्ठिदा जहा उदधी। णियमेसु दढव्वदिणो पारत्तविमग्गया समणा।859। जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं। समओवयारजुत्तं पारत्तहिदं कधं करेंति।860। सत्ताधिया सप्पुरिसा मग्गं मण्णंति वीदरागाणं। अणयारभावणाए भावेंति य णिच्चमप्पाणं।861। =सत्पुरुष वे मुनि विनय रहित कठोर भाषा को तथा धर्म से विरुद्ध वचनों को छोड़ देते हैं। और अन्य भी विरोध जनक वाक्यों को नहीं बोलते।853। वे नेत्रों से सब योग्य-अयोग्य देखते हैं और कानों से सब तरह के शब्द सुनते हैं परंतु वे गूंगे के समान तिष्ठते हैं, लौकिक कथा नहीं करते।854। स्त्रीकथा आदि विकथा (देखें कथा ) और मिथ्या शास्त्र, इनको वे मुनि मन से भी चिंतवन नहीं करते। धर्म में प्राप्त बुद्धि वाले मुनि विकथा को मन वचन काय से छोड़ देते हैं।857। हृदय कंठ से अप्रगट शब्द करना, कामोत्पादक हास्य मिले वचन, हास्य वचन, चतुराई युक्त मीठे वचन, पर को ठगने रूप वचन, मद के गर्व से हाथ का ताड़ना, इनको वे न स्वयं करते हैं, न कराते हैं।858। वे निर्विकार उद्धत चेष्टा रहित, विचार वाले, समुद्र के समान निश्चल, गंभीर छह आवश्यकादि नियमों में दृढ़ प्रतिज्ञावाले और परलोक के लिए उद्यमवाले होते हैं।859। वीतराग के आगम द्वारा कथित अर्थवाली पथ्यकारी धर्मकर सहित आगम के विनयकर सहित परलोक में हित करने वाली कथा को करते हैं।860। उपसर्ग सहने से अकंपपरिणामवाले ऐसे साधुजन वीतरागों के सम्यग्दर्शनादि रूप मार्ग को मानते हैं और अनगार भावना से सदा आत्मा का ही चिंतवन करते हैं।861।
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