वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 222
From जैनकोष
पुव्व-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वट्टदे दव्वं ।
उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा ।।222।।
अंतरंग का कारण कार्य का स्वरूप―इस गाथा में द्रव्यों का कार्य कारण परिणाम बताया गया है । पूर्वपर्याय से युक्त द्रव्य कारणरूप से रहता है और उत्तर पर्यायसहित द्रव्य कार्यरूप हुआ करता है । कारण कार्य विधान के समय न केवल द्रव्य का वर्णन ठीक बैठता है, न केवल पर्याय का वर्णन ठीक बैठता है । क्या केवल पर्याय ही कारण होता है अथवा कार्य होता है? सो केवल पर्याय कोई वस्तु नहीं और मात्र कोई पर्याय जो द्रव्य से रहित है किसी का कारण बने या किसी का कार्य बने ये दोनों बातें ही संभव नहीं हैं, इसी प्रकार कारणकार्यविधान में केवल द्रव्य की बात ग्रहण न करें । खाली वह शाश्वत वस्तु जो त्रिकाल अन्वयी है, एक इतना ही अंशमात्र न किसी का कारण है, न किसी का कार्य है । इसी कारण इस गाथा में इस तरह का वर्णन किया गया कि पूर्वपर्याय से युक्त द्रव्य कारण होता है और उत्तर पर्याय से सहित द्रव्य कार्य होता है, पूर्व पर्याय सहित द्रव्य कारण होता है इसका अर्थ है उपादान कारण होता है, क्योंकि वही द्रव्य जो पूर्व पर्याय में है उत्तर क्षण में नवीन पर्याय में आयेगा सो नवीन पर्याय में आया उसका उपादान कौन है? पूर्व पर्यायसहित द्रव्य अर्थात् वही द्रव्य उत्तर पर्यायरूप प्रकट हुआ है और पूर्व पर्यायसहित द्रव्य में अनंतर ही तो पर्याय हुई है, इस कारण पूर्व पर्यायसहित द्रव्य कार्य का उपादान कारण कहलाता है । वही द्रव्य जो उत्तर पर्याय से युक्त है वह कार्यभूत है, अर्थात् पूर्वपर्यायसंयुक्त द्रव्य जिसमें विवक्षित उत्तर पर्याय की योग्यता है, योग्य कारण सन्निधान मिलने पर वहाँ वह पर्याय प्रकट होता ही है ।
उपादानकारण की योग्यता―कदाचित् यह कह सकते हैं कि योग्यता तो उसमें अनेक पर्यायोंरूप बनने की है और कारण न मिला उस रूप का जो विवक्षित पर्याय बनी है तो वह कैसे प्रकट होगी? तो भाई विवक्षित पर्याय वही है जो अनुकूल कारण सन्निधान होने पर प्रकट होती है । कुछ लोग ऐसी कल्पना करते हैं कि पूर्व पर्याय सहित द्रव्य में जो उत्तरपर्याय होती है केवल उस ही एक पर्यायरूप होने की योग्यता है, लेकिन जब युक्ति से भी नजर आ रहा है कि कुम्हार ने चाक पर सनी हुई मिट्टी का पिंड रखा है और उस पिंड में सब योग्यतायें समझ में आ सकती हैं कि इसमें घड़ा भी बन सकता, दीपक भी बन सकता, ढक्कन भी बन सकता, सकोरा भी बन सकता, तो उसमें योग्यतायें अनेक पर्यायोंरूप हो सकती हैं किंतु जैसे अनुकूल साधन मिलते हैं कुम्हार का हाथ जिस ढंग का व्यापार करता है उस अनुकूल कारण को पाकर वहाँ उस प्रकार की पर्याय बनती है । अब इस ही तत्त्व को वस्तु दृष्टि से निरख करके कहा जा सकता है ऐसा कि चूंकि प्रत्येक पदार्थ में अनंत पर्यायें होती हैं, और जब जो होना है तब वह होता है अन्यथा सर्वज्ञ अवधिज्ञानी ये सब निष्फल हो जायेंगे । अवधिज्ञान से जाना तो है कि अमुक समय में अमुक परिणमन होना है तो कैसे जाना? होना है तब तो जाना है । तो केवल इस होने की दृष्टि को रखकर कोई यहाँ निरखे कि जब जो होता है सो होना है, तो प्रत्येक पर्याय के समय एक ही उत्तर नवीन पर्याय की योग्यता है, क्योंकि वही होगा, किंतु इस प्रसंग में यह है भी जानना चाहिएँ कि बात यद्यपि यह सही है कि जो जाना प्रभु ने, जो जाना अवधिज्ञानियों ने वह होगा, मगर जाना उन्होंने तब ही है जब वह होने को है और उसका होना है कार्यकारणविधानपूर्वक । जैसा कि दर्शनशास्त्र में वर्णित है, उपादान हो, बहिरंग अनुकूल कारण हों, प्रतिबंधक कारण का अभाव हो तब वहाँ वह कार्य बनता है, तो इस कार्यकारणविधानपूर्वक जो कुछ होगा उसको जान लिया है । तो जानने मात्र से कार्यकारणविधान का तिरस्कार नहीं हो सकता । वह जिस विधिपूर्वक होता रहता है, होता था, होता रहेगा, अब उसको ज्ञानियों ने जान लिया तो यह कोई अपराध तो नहीं किया ।
कार्य के अंतरंग और बहिरंग हेतु―यहां बताया जा रहा है कि पहिली अवस्था में रहने वाला पदार्थ अगली अवस्था का उपादान कारण होता है । जैसे मिट्टी का पिंड घड़ा बनने का उपादान कारण है । उसके बाद वहाँ घड़ा बना ना, खपरियों का उपादान कारण वह घड़ा है । क्योंकि घड़ा फूटकर ही खपरियाँ बनीं । तो उत्तरोत्तर जो पर्याय होती रहती हैं उन कार्यों का अंतरंग कारण उपादान कारण पहिली-पहिली अवस्था में रहता हो वही द्रव्य है । इस बात को अपने आप पर घटित करो कि हममें जो रागादिक भावों की संताने चलती रहती हैं, राग हुआ, विकल्प हुआ, कुछ और विचार हुए, कभी कुछ सोचते हैं कभी कुछ, तो यों जो मलिन पर्यायों की संतति चल रही है, यह धारा नहीं टूट रही है तो इस धारा में कौन कारण है? तो अंतरंग कारण तो यह स्वयं है । क्योंकि इसी में ही यह धारा बन रही है और ऐसे संस्कार हैं, अज्ञानभरा भाव है इस योग्यता से यहाँ यह रागद्वेष की धारा चल रही है, पर बहिरंग कारण पर, निमित्त कारण पर दृष्टि देते हैं तो कोई अन्य पदार्थ वहाँ निमित्त अवश्य है अन्यथा अर्थात् बाह्य को निमित्त न मानने पर केवल अपने ही उपादान से अपने में ये मलिनतायें बनीं, ऐसी स्वीकृति कर लेने पर तो इन पर्यायों का अंत न आर सकेगा । कैसे अंत आये? जब अपनी सत्ता मात्र से ही ये रागादिक हो रहे हैं तो ये विनष्ट कैसे हों? तो बताया गया है कि कर्मोदय निमित्त कारण है, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन-वैभव आदिक ये सब बहिरंग आश्रय कारण हैं और हमारी अज्ञानता, हमारा उस प्रकार का संस्कार यह हमारा अंतरंग कारण है । इस तरह कार्य कारण विधान होता है ।
पर से उपेक्षा करके स्वयं में, अंतःप्रकाशमान परमात्मतत्त्व के दर्शन का कर्तव्य―इस प्रसंग में हमको उस तत्त्व पर दृष्टि देना चाहिए कि जहाँ दृष्टि जाने पर यह विदित होता कि मैं न कार्य हूँ न कारण हूँ, वह दृष्टि हैं अनादि अनंत अहेतुक ज्ञान स्वभाव की दृष्टि । मैं अपने आप अपने सत्त्व से क्या हूँ? निरपेक्षरूप से अपने सत्त्व का बोध किया जाय तो वह चैतन्यमात्र अनुभव होगा । इस मेरे का किसी अन्य पदार्थ से कोई संबंध कहीं है । पूर्वभव में कोई परिवार मिला होगा, कोई समागम तो था ही, कहीं तो जन्म था ही । वहाँ से मरण करके यहाँ आये तो इस समय हमारे लिए क्या रहा वहाँ का? न उसका कुछ ख्याल है, न व्यवहार है, न संबंध है । तो जैसे पूर्वभव की छूटी हुई चीजें प्रकट मालूम हो रही हैं कि वे मेरी कुछ न थीं । तो भाई जो बात पूर्व बीते हुए भव की हो सकती है वही बात आगामी (आगे होने वाले) भव के लिए भी हो सकती है । आज जो ये समागम प्राप्त हैं यहाँ मरण करके जाने के बाद फिर ये अपने कुछ न रहेंगे । ये सब छूट जायेंगे । देखिये―इस सत्य ज्ञान का क्षणभर के लिए भी छूना बन जायेगा तो एक अलौकिक आनंद की प्राप्ति होगी । अपने आपके सत्य वैभव का दर्शन होगा । परमात्मस्वरूप का दर्शन न तो शरीर के परिश्रम से होगा और न धन वैभव के द्वारा होगा । न किसी प्रकार के मौज में रहने से होगा । न कोई क्लेश करने से होगा । परमात्मस्वरूप का दर्शन विकल्पों का परित्याग करने से होगा । इस प्रभुस्वरूप के दर्शन में बाधा हमारे ही खुद के विकल्पों से आ रही है । हम बाहर में अपने उपयोग को किए हुए हों तो अंतरंग की बात को नहीं समझ सकते हैं । जब बाहर से अपने इस उपयोग को हटाकर कुछ अपने अंत: में ले जायेंगे तो वहाँ अपने अंदर पड़ी हुई उस अमूल्य निधि का दर्शन होगा । तो हमारे ये विकल्प ही हमारी उन्नति में बाधक है, इन विकल्पों के ही कारण हम दुःखी रहा करते हैं और इस संसार में रुलते रहते हैं ।
अपनी असहायता स्वसहायता―हमें अब चेतना चाहिए और कम से कम इतना निर्णय सदा रखना चाहिये कि मेरे किए हुए कर्मों का फल मुझे अकेले ही भोगना होगा । मेरे किए हुए कर्मों का फल भोगने के लिए यहाँ कोई दूसरा हमारा साथी न होगा । अगर कदाचित् शिर दर्द हो जाय तो उसके दर्द को ये परिजन, ये मित्रजन कोई भी बाँट न सकेंगे, उस दर्द को तो खुद को ही भोगना पड़ेगा, हाँ वे दूसरे लोग मनपसंद बातें करके चित्त को रमाते हैं, पर हम ही यदि उनकी बातों में राग करते हैं तो उनमें हमारा चित्त रम जाता है, पर वे कोई भी लोग मेरे किसी भी प्रकार के परिणमन को कर सकने में समर्थ नहीं हैं । ऐसा असहाय यह मैं हूँ इस जगत में । असहाय का अर्थ है―खुद का असहाय होना, अन्य किसी का सहाय न होना । प्रभु को केवलज्ञान असहाय है, मायने प्रभु को किसी दूसरे की सहाय नहीं है । वे खुद ही खुद के लिए सहाय हो गए हैं । यहाँ दो दृष्टियों से देखना हैं―सांसारिक दृष्टि से भी कोई किसी का सहाय नहीं है । हाँ अगर कोई लोग किसी को पूछा करते हैं तो समझ लीजिए कि उस व्यक्ति का ऐसा पुण्योदय ही है कि जिसकी वजह से वे लोग पूछ कर रहे हैं । अगर खुद का पुण्योदय उस ढंग का न हो तो फिर कौन उसकी पूछ करते? अगर कोई सोचे कि देखो ये लोग कितना हमारे लिए प्रिय बन रहे हैं, ये लोग कितना प्रेम का व्यवहार मेरे प्रति कर रहे हैं तो उसका यह सोचना गलत है । अगर आपकी ही कुछ करतूत न हो, आपमें ही कोई कला न हो तो फिर कौन आपकी पूछ करेगा? हां आपका स्वयं को जब उस ढंग का पुण्योदय है तो वे लोग आपकी पूछ कर रहे हैं। तो अपनी ही करतूत अपने को फल देती है । इस बात का निर्णय बनाये कि यहाँ कोई दूसरा मेरा साथी नहीं है । यह भी श्रद्धान हो तब भी बहुत से संकटों से छुटकारा हो सकता है ।
पर्यायविवेक―हममें उत्तरोत्तर कार्य किस प्रकार से होते रहते हैं उसका यह वर्णन चल रहा है । मैं हूँ, अनादि से हूँ, अनंत काल तक रहूँगा, मेरा कभी अभाव न होगा । मैं रहूंगा सदा । जब सदा रहूंगा तो किसी न किसी अवस्था में ही तो रहूंगा । वे अवस्थायें गति मार्गणा की दृष्टि से 5 हैं नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध । इनमें से किसी न किसी अवस्था में यह जीव रहता है । सिद्ध अवस्था ऐसी है कि उसके बाद फिर दूसरी अवस्था नहीं बनती । अवस्थायें तो हैं । इंद्रिय मार्गणा की दृष्टि से एकेंद्रिय रहे, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय रहें अथवा इंद्रिय से रहित रहे, ये अवस्थायें ही तो हैं । इनमें इंद्रियरहित अवस्था इसे प्राप्त हो तो फिर दूसरी अवस्था न होगी । तो इन अवस्थाओं में एक छंटनी करें कि अपना हित किस अवस्था में रहने में है? क्या संसार में जन्ममरण करते रहें, जिंदगी मोह राग में ही बितायें, इसमें कुछ अपना हित हो सकेगा ? अरे यह तो संकट है । तो अपने को ऐसी अवस्था प्रकट हो कि जो शांति उत्पन्न करे । उसी के लिए अपनी योग्यता बनाना है । वह योग्यता बनेगी भेदविज्ञान के संस्कार से । नित्य भेदविज्ञान बना रहे ।
अपनी विविक्तता का परिचय―आचार्य संतजन तो कहते हैं कि अविच्छिन्न धारा से अर्थात् कभी भी न टूटे ऐसी धारा से भेदविज्ञान रहे, सदा विविक्त अंतस्तत्त्व का प्रत्यय रहे, विश्वास रहे कि मैं सबसे निराला केवल चैतन्यमात्र हूँ । मैं अपने ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ । सर्व गुणों में ज्ञानगुण प्रधान है । ज्ञानगुण का वर्णन करने में सभी का वर्णन आ जाता है । ज्ञान को छोड़कर अन्य कुछ न मैं करता हूँ, न भोगता हूँ । इसी समय मानो आपने कोई बिल्डिंग बनाया, या कोई व्यापार बढ़ाया तो इन सब प्रसंगो में आपने वास्तव में किया क्या? चीज बनी, चीज का परिणमन तो आपने नहीं किया, आपने विचार बनाया, बुद्धि, बनाया, विकल्प बनाया, इसके आगे और कुछ नहीं किया । अब इस विधि विकल्पों के किये जाने पर निमित्तनैमित्तिक भाववश ये सब कार्य हो रहे हैं । तो सर्वस्थितियों में यह जीव ज्ञान को करता है, विकल्प को करता है, किसी अन्य पदार्थ का करने वाला नहीं है । तो यों वस्तुस्वरूप समझ में आने पर पूर्वपर्याय सहित द्रव्य उत्तरपर्याय का कारण है, यह बात यथाविधि समझ में आने पर जैसे मैं मेरे लिए कार्यकारण हूँ ऐसे ही सभी पदार्थ उनके लिए कार्यकारण हैं । तब मेरा किसी अन्य पदार्थ से क्या संबंध है? ऐसा परिचय होता है, तो उसमें मोह टूटता है । जहाँ जीव का मोह मिटा, अपने आपके स्वरूप की धुन बनी कि उसके सर्व कुछ कार्य सिद्ध हो जाते हैं ।
सर्वकार्यों के मायने, प्रयोजन है शांति का उसका लाभ हो जाता है ।