वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 296
From जैनकोष
रयणत्तये वि लद्धे तिव्व कषायं करेदि जइ जीवो ।
तो दुग्गईसु गच्छदि पणट्ठ-रयणत्तओ होउं ।।296।।
रत्नत्रय प्राप्त होने पर भी तीव्रकषाय हो जाने पर रत्नत्रय के विनाश की व दुर्गतिगमन की विडंबना―किसी जीव के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्मक्चारित्र प्राप्त हो गया, कषायों का उपशम विशेष होने से ढंग से भी प्राप्त हो गया। तब किसी समय यदि ऐसा उदय आये कि यह जीव तीव्र क्रोध कर जाय तो दुर्गतियों का पात्र होता है । कथानक में आया है कि द्वीपायन मुनि जो नेमिनाथ स्वामी के समय में हो गए उनके जब समवशरण में यह ज्ञान की बात प्रकट हुई कि द्वारिका नगरी 12 वर्ष के बाद भस्म होगी तो इनके ही कारण से भस्म होगी तो उन्होंने उस नगरी को छोड़ दिया, और बहुत दूर चले गए । अब जब 12 वर्ष गुजर गए द्वीपायन मुनि ने अपने हिसाब से सोचा कि अब तो चलना चाहिए, नगरी में, सो अपनी समझ के अनुसार 12 वर्ष के अंत में वे चले आये । वह 13 माह का वर्ष था । (13 माह का भी वर्ष होता है) उस बीच राजाओं ने सब शराब फिकवा दी थी, क्योंकि उस शराब के कारण सभी लोग मतवाले हो रहे थे । समझ लिया गया था कि इस शराब के कारण द्वारिकापुरी भस्म होगी । अब वह शराब कहीं फेंक तो दी गई थी, किंतु पानी बरसने से वह शराब पानी से मिश्रित हो गयी थी । 12 वर्ष पूरे जानकर वही द्वीपायन मुनि उसी द्वारिका नगरी के उद्यान में पहुंचे । वहाँ पर जो शराब बिखेरी गई थी उससे मिश्रित जल पीने से वहाँ के कुछ लोग मतवाले हो गए थे । सो लोगों ने द्वीपायन मुनि पर ढेला पत्थर मारना शुरू किया । उन द्वीपायन मुनि को तैजस ऋद्धि थी, सम्यग्दर्शन भी था, आत्मा का रत्नत्रय भी प्राप्त था, मगर उन्होंने सोचा कि देखो ये दुष्ट लोग व्यर्थ ही हमें सता रहे हैं सो ऐसा क्रोध उपजा, निश्चय कर लिया कि मैं इन्हें भस्म कर दूं । इतना विचार करते ही उनके बायें कंधे से तैजस का पुतला
निकला, उससे सारी द्वारिका नगरी भस्म हो गयी और खुद भी भस्म हो गये । तो यहाँ यह बतला रहे हैं कि रत्नत्रय भी प्राप्त हो जाय तो भी यदि यह जीव तीव्रकषाय करता है तो इसे दुर्गतियों ओं जन्म लेना होता है । तब फिर रत्नत्रय कहां से होगा?
तीव्रकषाय से हानियां जानकर अपने कर्त्तव्य का निर्णय―इस प्रसंग में अपने जीवन में इतनी शिक्षा लेना चाहिए कि तीव्र कषाय अशांति को ही बढ़ाने वाली चीज है । सो तीव्रकषाय न करें । कभी-कभी तीव्र क्रोध भी जग जाता हो, पर उसमें ऐसी गाँठ न लगायें कि हम इस व्यक्ति को बरबाद करके ही रहेंगे । घमंड होना तो मनुष्यों में प्रधानता से बताया ही गया है । देवगति के जीवों में लोभकषाय की प्रधानता है और नरकगति के जीवों में क्रोध की प्रधानता है, तिर्यंचों मे मायाचार की और मनुष्यों में मानकषाय की प्रधानता है । पर मनुष्य तो मानो इन चारों गतियों के प्रत्येक कषाय का प्रतिनिधित्व रखना चाहता है (हंसी) याने क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक सभी कषायें इन मनुष्यो में बड़ी तीव्रता से पायी जा रही है । इन तीव्र कषायों के ही कारण इस जीव को अनेक प्रकार के दुःख सहन करने पड़ रहे हैं । किसी ने किसी को दुर्वचन बोल दिये तो उसका फल तो बुरा ही होगा । उसी समय बुरा हो जाय या कुछ समय बाद हो जाय । और कर्मबंध होने से तो भविष्य में बुरा होने का ही है । तीव्र कषाय इस जीवन में अशांति उत्पन्न करती है, अत: मेरे कोई कषाय मत रहो ऐसी भावना रखना चाहिए । तो यह जीव इतनी कठिन-कठिन चीजों को पार करके आज मनुष्य पर्याय में आया है । इतनी ऊँची बातें प्राप्त करने पर भी यदि इन बातों की उपेक्षा कर दी तब तो फिर उसी जन्ममरण के चक्र में पड़ना होगा । इन तीव्रकषायों से इस जीव का घात है, पाया हुआ ज्ञान भी खतम हो गया । अवधिज्ञान में बताया है कि किसी जीव को जिस समय अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह उस जगह को छोड़ने के बाद दूसरी जगह पहुंच गया तो अवधिज्ञान रहे भी, न भी रहे । कोई अवधिज्ञान इतना कमजोर है कि जिस जगह रहते हुए अवधिज्ञान हुआ वह स्थान छूटा तो अवधिज्ञान छूटा । तो इस बात में हुआ क्या कि उपयोग बदल गया । अब उस उपयोग के बदलने से जो कषाय विशेष बनी तो पाया हुआ ज्ञान भी खतम हो जाता है । तो तीव्र कषाय में ज्ञान की बरबादी है । अशांति उत्पन्न होती है, लाभ कुछ नहीं मिलता । तो मंदकषायपूर्वक जीवन बिताना यह भी एक अपने लिए बहुत बड़ी देन है ।