वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1020
From जैनकोष
अध्यात्मजं यदत्यक्षं स्वसंवेद्यमनश्वरम्।
आत्माधीनं निरावाधमनंतं योगिनां मतम्।।1020।।
अनश्वर स्वसंवेद्य निराबाध आत्माधीन अध्यात्मसुख की उपादेयता― साधारणजन अपनी इस नीति के अनुसार कि गोद को छोड़ें, पेट की आशा करें, ऐसी कहावत है ना, चाहते यह कि हम ऐसी मूर्खता न करें कि वर्तमान के सुख को छोड़कर आगामी मोक्ष सुख की चाह करें। अरे जिसका कुछ रूप नहीं, रंग नहीं, पता नहीं उस मोक्ष सुख की या आत्मीय सुख की आशा क्यों रखें। ऐसा विचार रहता है साधारण जनों का। और, कैसे समझें कि हाँ रहता है ऐसा विचार? तो उनकी करतूत से समझ लो। उनके लिए प्रतिबोधन किया है, इस लोक में कि भाई देखो थोड़ा तो तुम भी अनुभव कर लो― जब कभी बड़े आराम से सुबह अपने घर पर आप बैठे हैं अपने चबूतरे पर, उस समय न कुछ खा पी रहे हैं, न कोई व्यापार आदिक का समय है, एक ठलुवा सा बैठे हैं, उस समय यहाँ वहाँके अधिक विचार विकल्प का भी समय नहीं है, ऐसा ठलुवा जैसे जब बैठे हों, उस समय का आनंद कुछ अच्छा है ना, वनस्पत उसके कि दूकान में बैठे हुए या भोजन करते हुए में, या कोई इंद्रियसुख भोगते हुए में माना जाता है। वहाँ तो कुछ विलक्षण और कुछ असली जैसा आनंद है। यहाँ अंदाज करा रहे हैं कि इंद्रिय सुख की अपेक्षा इंद्रियज सुख में या किसी कामकाज में या विकल्प में न पड़े हों, बड़े आराम से बैठे हों, उसका आनंद कुछ अच्छा होता है। यहाँ ठलुवा का अर्थ कायर से नहीं कह रहे, किंतु विश्राम से रहने की कह रहे। उस समय भोजन नहीं कर रहे, राग रागिनी के वचन नहीं सुन रहे, थियेटर नहीं देख रहे, कोई विषय नहीं से रहे, वह आनंद कुछ अपने आप हो रहा है, तो इसी प्रकार समझिये कि जहाँविषयों का परिहार हो जाय बड़े ज्ञानपूर्वक तो उस समय आत्मा में कोई सहज ही आनंद उत्पन्न होता है उसे कहते हैं आत्मीय आनंद। योगियों का जो सुख है वह अध्यात्मज है, आत्मा से उत्पन्न हुआ है। यहाँ शंका मत करें कि गोद की छोड़कर पेट की बात क्यों करें, वर्तमान सुख को छोड़कर आत्माधीन आनंद की आशा क्यों करें? अरे आत्मज आनंद तो स्वाधीन आनंद है, टिकाऊ है, स्वयं से उत्पन्न हुआ है। वह इंद्रिय द्वारा विषयों से उत्पन्न नहीं होता। इसको कुछ समझने मेंतकलीफ हो रही है क्या? अगर तकलीफ हो रही तो सुनो, वह आनंद समझने में यों नहीं आ रहा कि आप इंद्रिय द्वारा समझना चाह रहे। वह आनंद तो स्वानुभवगम्य है। इंद्रिय के व्यापार को हटावें, विश्राम से बैठकर अपने सहज ज्ञान बल पर भरोसा रखें, स्वयं अपने आप ध्यान में आ जायगा कि आत्माधीन सुख एक अलौकिक आनंद है, जब कि इस इंद्रियजंयसुख में अनेक विपत्तियाँ हैं। यह इंद्रियसुख पराधीन है, बाधासहित है, विनाशीक है। लेकिन आत्मजन्यसुख बाधारहित है, स्वाधीन है। इंद्रियजंयसुख से मुख मोड़े और आत्मीय आनंद की ओरअपने को रखें।