वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 103
From जैनकोष
प्रतीकारशतेनापि त्रिदशैर्न निवार्यते।
यत्रायमंतक: पापी नृकीटैस्तत्रका कथा।।103।।
आनंद की अनिवार्यता― इस मरण का निवारण तो देव भी नहीं कर सकते। चाहे वे सैकड़ों उपाय कर लें फिर इस मनुष्य कीट की तो कहानी ही क्या है? मनुष्य अपनी रक्षा के लिए बहुत सुदृढ़ मकान बनाते हैं, मजबूत दीवाल, कोट, खाई के बीच में बहुत अच्छा भवन जिसमें सर्दी गर्मी ऋतु के अनुकूल सारी सुख सामग्री रखते हैं, ताकि किसी भी प्रकार यह देह मिटे नहीं। डाक्टर भी लगा रक्खा है, बड़े उपचार भी किये जा रहे हैं, बहुत-बहुत प्रयत्न करने पर भी किसी को पता नहीं कि किस समय यह मनुष्य कीट संसार से विदा हो जाता है? एक का मित्र बीमार था, वह अपने बीमार मित्र से मिलने के लिये शाम के समय गया। बीमार मित्र से पूछा― कहो भाई अब कैसी तबीयत है? बोला― क्या बतायें, बिस्तर से उठा ही नहीं जाता, करवट भी नहीं बदल पाता, बहुत कठिन बीमारी है, हिला डुला भी नहीं जाता। कुछ बातें हो जाने के बाद वह मित्र अपने घर चला गया। सुबह 9 बजे फिर अपने मित्र की खबर लेने आया, घर के लोगों से पूछा कि अब हमारे मित्र की कैसी हालत है? तो घर के लोगों ने बताया कि वह तो चला गया। कहाँ चला गया? वह तो दुनिया से चला गया। तो वह झुंझलाकर कहता है कि कल तक तो यों कहता था कि बिस्तर से उठा जाता नहीं, आज उसमें दुनिया से भी जाने की ताकत आ गयी। वह बड़ा धोखेबाज निकला। तो यहाँ किसकी शरण गहते हो, यहाँ कौन शरण हो सकता है, सभी तो अशरण हैं। जो स्वयं अशरण हों उनसे शरण मिलने की आशा क्या? जो स्वयं शरणभूत हो गए हैं वे हैं परमात्मप्रभु। वे भी परद्रव्य हैं, वे हमारा हाथ पकड़कर तार न देंगे। जो शरण हुए हैं उन जैसा स्वभाव मुझमें है। मैं खुद-खुद की ही शरण गहूँ तो मेरे लिए मैं ही शरण हूँ।
अज्ञान में ही सर्वत्र क्लेश― भैया ! घर पकड़कर रहते हैं तो वहाँ भी कष्ट है। घर पकड़ में नहीं रहता। कुटुंब पकड़कर चलता है तो वहाँ भी कष्ट है। कुटुंब रहता नहीं सदा। इस शरीर की पकड़ करते हैं तो इसमें भी कष्ट है। यह शरीर भी रहता नहीं है और एक अपने आपके स्वरूप की पकड़ करें तो यह तो कहीं जाता नहीं। हम इसका ग्रहण न करें तब भी मेरे ही पास है और जो शाश्वत है उसको ग्रहण करें तो इस स्वरूप की ओर से धोखा इसका नहीं है। हम ही छोड दें यह बात अलग है जैसे हम परपदार्थों का ग्रहण करते हैं तो वहाँ पर की तरफ से धोखा रहता है। कभी भी उसका वियोग हो सकता है। हम अपने स्वरूप का ग्रहण करें तो स्वरूप की ओर से धोखा है ही नहीं। हम ही ग्रहण न करें यह हमारी बात है। तो ऐसे निजस्वरूप का जिसके ग्रहण है उसके लिए मृत्यु नहीं है। उसके ध्यान में ही नहीं कि मैं मरा। मैं तो यहाँ हूँ, यहाँ न रहा, दूसरी जगह चल दिया।
ज्ञान में सर्वत्र आनंददृष्टि― जिस नगर में, देश में किसी से अपना परिचय न हो और वहाँ कोई यह कह दे, स्टेशन पर हो या किसी जगह हो, भाई साहब ! आप यहाँ न बैठिये, वहाँ चले जाइये। तो उसको उस स्थान को छोड़कर चले जाने में कष्ट नहीं होता, विकल्प नहीं होता, और जिस देश में, नगर में परिचय हो गया और वहाँ कोई यह कह दे― साहब आप यहाँ न बैठिये, वहाँ बैठ जाइये, तो वह बुरा मान लेता है। जिस जगह कोई अपना परिचय वाला न हो वहाँ गालियाँ भी सहन हो जाती हैं और जिस जगह परिचय हो वहाँ एक साधारण बात भी सहन करना कठिन है। मेरे जानने वाले लोग मुझे क्या समझ रहे होंगे कि यह न कुछ चीज है। यों विकल्प बढ़ गये। तो अब समझिये कि इस ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष ने इस मायामय चीजों से कोई परिचय नहीं करा रखा है, सबको अपरिचित जान रहा है। ये दृश्यमान् शरीर, ये मायामयी मूर्तियाँ हमें जानती ही नहीं।
अज्ञान का कारण बाह्य परिचय की कल्पना― कहीं बहुत से काठ पत्थर ढेलों के बीच में से कोई जा रहा हो और कोई ढेला लग जाय तो उस समय वह अपना अपमान तो नहीं महसूस करता, क्योंकि वह जानता है कि ये ढेले पत्थर तो अचेतन हैं। लग गये मुझ पर तो लग गये, अपना अपमान महसूस नहीं करता कि यह ढेला मुझ पर गिर क्यों पडा? इसने मेरा बड़ा अपमान किया। कहीं परिचय हो और वहाँ कोर्इ पत्थर गैर दे सिर तो अपना अपमान महसूस करता है। पत्थर के संबंध में वह खूब जानता है कि इस पत्थर से मेरा कुछ परिचय नहीं है, ये पत्थर भी कुछ अपमान महसूस नहीं करते, पर यह परिचित लोगों के बीच अपना अपमान महसूस करता है। ज्ञानी पुरुष इन दृश्यमान् सभी परपदार्थों के प्रति यह समझ रहा है कि ये मुझे जानते ही नहीं, इनमें जानने का स्वभाव ही नहीं पड़ा हुआ है। ये दृश्यमान् सभी मुझे जानते ही नहीं हैं और जो जानने वाला खास है वह अत्यंत गुप्त है, वह व्यवहार में आता नहीं, मुकाबले में खड़ा होता नहीं, वह तो निर्विकल्प है। यों इस जगत् के अपरिचित समझने वाला सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष क्षोभ को प्राप्त नहीं होता है, लोगों के किसी प्रकार के व्यवहार के कारण।
मरण समय में ज्ञानी पुरुष के खेद के अभाव का कारण― ज्ञानी पुरुष आयु का क्षय हो जाय तो वह कहाँ क्लेश करता है? जैसे अपरिचित स्थान में किसी ने कह दिया, बाबू जी आप यहाँ न बैठिये, वहाँ बैठ जाइये तो वह उठकर चला जाता है, उसका खेद नहीं मानता ऐसे ही अब नवीन आयुकर्म का उदय आने को है तो उसने पहिले से ही कह दिया कि अब महाराज यहाँ से जाइये और उस जगह चले जाइये, जो दूसरे भव में जन्म स्थान है। तो यह तैयार रहता है, अच्छी बात है लो अब वहाँ चलो और जिस जीव ने यहाँ के समागम में, वैभव में, परिजन में परिचय बनाया है और उनके इस व्यवहार के कारण अपने यश और नाम की कल्पना की है उसे अब यहाँ से उठकर अन्यत्र जाने में क्लेश होता है क्योंकि इसकी दृष्टि इस परिचित समागम में लगी है कि ये सब छूटे जा रहे हैं। बड़ा परिश्रम करके तो हमने इतना कमाया, इतना वैभव इकट्ठा किया, ऐसी पोजीशन बनायी, इतने आराम के साधन इकट्ठे किये, लेकिन अब यों जाना पड़ रहा है।
दु:ख दूर होने का यत्न― भैया ! दु:ख से दूर होने के लिये यह उपाय नहीं करना है कि बहुत से परिग्रहों का संचय कर लो, यश बढ़ा लो, नायक बन लो। यह तो होता है इस पुण्योदय के अनुसार। यह भी कर्मफल है। पर करने का प्रयत्न तो अपने को अपना परिचय बनाया और इन दृश्यमान् जालों से अपरिचित बनाया, यह अत: एक ज्ञानमय कार्य करने को पड़ा हुआ है। यह बात समाई तो मृत्यु का भी दु:ख नहीं है और अपने स्वरूप की बात न समाई तो इंद्र भी हो, चक्री भी हो ये सबके सब इस यम के पंजे के वशीभूत होकर दु:खी हुआ करते हैं यह मरण बड़े-बड़े देवों के द्वारा भी निवारण नहीं किया जा सकता तब फिर यह नरकीट जो देवों के समक्ष ऋद्धि बल आदिक में कीट की तरह है इसकी तो कहानी ही क्या है? तात्पर्य यह है कि काल दुर्निवार है। तब कभी भी अपना अचानक मरण संभव है। जब तक मरण न आये तब तक आत्मकल्याण कर लो और जब एकदम समय आ पड़ेगा तो करते भी कुछ न बनेगा और संक्लेश मरण होने से अगले भव में भी पीड़ा होगी, ऐसा एक निर्णय बना लें। इससे जगत् को असार जानकर अपने स्वरूप की शरण गहें और अपने आपके बर्ताव से अपने आपमें प्रसन्न रहने का यत्न करें।