वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1040
From जैनकोष
अहो अनंतवीर्योऽयमात्मा विश्वप्रकाशक:।
त्रैलोक्यं चालयत्येव ध्यानशक्तिप्रभावत:।।1040।।
आत्मा का अनंतवीर्यता―अपने आपके आत्मवीर्य पर दृष्टि दें, ध्यान साधना के लिए उद्यमी पुरुषों के लिए यह शिक्षण चल रहा है। अहो ! देखो यह आत्मा अनंत वीर्यवान है, समस्त विश्व का प्रकाश करने वाला है। भीतर निष्पक्ष होकर अर्थात् देहादिक का पक्ष न करके निरखा जाय कि यह मैं क्या हूँ तो एक अनुपम ज्योतिस्वरूप मालूम पड़ेगा। यह एक जाननस्वरूप है, जिसका कार्य निरंतर जानते रहना है, जानना स्वभाव है इसका। जानने का स्वभाव है तो वे सब पदार्थ जानने में आते हैं जो कि सत् हैं। असत् क्या जानने में आये, असत् ही है। पर जितने भी सत् हैं ये समस्त सत् इस ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं अतएव यह आत्मा ऐसा अनंत वीर्यवान है कि समस्त विश्व का प्रकाश करने वाला है। आत्मा में ध्यान शक्ति का प्रभाव ऐसा विलक्षण है कि जिस ध्यान की शक्ति के प्रभाव से यह आत्मा तीन लोक को भी चलायमान कर देता है। इस आत्मध्यान के प्रताप से तीर्थंकर आदिक महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त होते हैं। तो उन पदों में इंद्र धरणेंद्रादि तीन लोक के जीव उस ओर आकृष्ट होते हैं अर्थात् आते हैं, प्रभावित होते हैं। और फिर ध्यानशक्ति के प्रभाव से यहाँ भी कितना ही एक निमित्त नैमित्तिक भाव में परिणमन हो जाता है। जैसे लोकव्यवहार में भी देखते हैं कि मंत्र के प्रताप से किसी का विष दूर कर दिया या कोर्इ अन्य विडंबना संपदा समृद्धि उत्पन्न हुई तो ऐसे-ऐसे भी इस लोक में प्रभाव बनते हैं। और आत्मध्यान का सत्यप्रभाव यह हे कि रागद्वेष आदिक मल दूर होकर एक आत्मा में अनुपम स्वच्छता प्रकट होती जिससे इसकी सब बाधायें दूर हों वे सब एक आत्मध्यान से होती हैं। सर्वोपरि कल्याण है मोक्ष। उस मोक्ष का बीज है यह आत्मध्यान। किस पदार्थ का किस तत्त्व का ध्यान किया जाय जिससे ये समस्त रागद्वेषादिक विकार दूर हों। उसका सुगम आलंबन है यह आत्मा। मुनिराज जब ध्यान करते हैं तब तीनों लोक में इंद्रों के आसन कंपायमान होते हैं अथवा जो पूर्ण भव में ध्यान किया था, दर्शनविशुद्धि आदिक भावना भाई थी, उस अद्भुत आत्मध्यान के प्रताप से अथवा समस्त लोक के उपकार के भाव से जो कि एक आत्मध्यान के समान ही संबंध रखता है, जो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ अब उसके उदय में देखिये तो जन्म समय में अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक सब जगह खलबली मच जाती है। आत्मध्यानशक्ति के प्रभाव से यह आत्मा तीन लोक को भी चलायमान कर देता है। जो कुछ कल्याण है, पूर्णहित है वह सब अपने आत्मा में है। एक आत्मतत्त्व को छोड़कर बाहर कहीं भी दौड़ लगायें, उससे हित न होगा। किसी भी परवस्तु में हमारा कुछ अधिकार नहीं है। हम केवल विकल्प करके अपने आपका गुजारा कर रहे हैं जिस तरह भी कर रहे हैं पर किसी परवस्तु पर अधिकार नहीं है। मैं किसी भी पर का स्वामी नहीं हूँ। अहंकार ममकार तजकर अपने आपमें सहज विश्राम से निरखा जाय तो आपमें अद्भुत जो गुण हैं उन गुणों का अनुभव होगा। उस आत्मध्यान में ही यह सामर्थ्य है कि यह जीव निराकुल रह सकता है।