वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1086
From जैनकोष
विषयग्रासलुब्धेन चित्तदैत्येन सर्वथा।
विक्रम्य स्वेच्छयाऽजस्रं जीवलोक: कदर्थित:।।1086।।
विषयग्रासलुब्ध चित्तदैत्य के द्वारा जीवलोक की कदर्थितता― इस चित्तरूपी दैत्य ने जो विषयों के ग्रास का लोभी बन रहा है उसने अपनी इच्छा से बड़ा ऊधम मचाकर इस सारे जीवलोक को कतर डाला है। हे क्या संसार में दु:ख? सिवाय एक चित्त स्वच्छंद यहाँ वहाँ लगता फिरना, बस यही एक मात्र क्लेश है। जहाँ बैठा बैठा रहे, जहाँ आत्मा है बना रहे, उसमें ही इसकी लीनता रहे तो समस्त समृद्धियाँहैं, लेकिन चित्त नहीं जमता और जगह-जगह डोलता है, चेतन अचेतन परिग्रहों में यह चित्त डोला करता है। तो इसका विलय करके इस जीव लोक को कदर्थित कर देना है। जिन्होंने अपने चित्त राक्षस को वश किया वे ही योगी जन त्रिलोक पूज्य होते हैं। कुछ पुण्य का उदय आता है तो यह चित्त-राक्षस और विशेष ऊधम मचाता है और इस ऊधम के कारण यह पुण्य भी नरक गति का कारण बन जाता है। पुण्य का उदय हो, वैभव प्राप्त हो, चित्त स्वच्छंद फिरे, किसी भी जीव को कुछ न गिने, अपने आपमें अहंकार और घमंड में रहे और इस तरह अज्ञान अंधेरे से जीवन व्यतीत किया, परिणाम यह हुआ कि उसे मरकर दुर्गति में जाना पड़ता है। यद्यपि दुगर्ति का कारण पापपरिणाम है, पुण्य का उदय नहीं है, पर पुण्य के उदय में ऐसे साधन मिले कि जितनी वजह से इसने पापपरिणाम उत्पन्न किया और फल यह हुआ कि दुर्गति प्राप्त की। इससे जगत में अगर कुछ पुण्य के ठाठ भी दिख रहे हैं अथवा पुण्य के ठाठ भी प्राप्त हुए हैं तो ये सब रमने के योग्य नहीं हैं, यह तो सब धोखा है। एक आत्मा का सत्य विज्ञान भेदविज्ञान बने, यही मात्र जीव को शरण है।