वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1092
From जैनकोष
यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम्।
सिद्धमेव मुनेस्तस्य साध्यं किं कायदंडनै:।।1092।।
स्थिरचित्त वाले मुनि के साध्य की सिद्धि का विनिश्चय:― जिस योगी का चित्त स्थिर है, प्रसन्न हे, ज्ञान से वासित है, उस मुनि के साध्य साधक हो गए। अब काय को दंड देने से क्या प्रयोजन? चित्त में स्थिरता, प्रसन्नता और अपने ज्ञान में ही रहना ये तीन विशेषण दिए हैं जिनमें मुख्य तो है ज्ञान में रहना और उसके दो ये कारण हैं। जो चित्त स्थिर होगा, प्रसन्न होगा अर्थात् निर्दोष होगा सो ज्ञान में बसेगा, सब कुछ इस मन माया का खेल है। यह मन बाहरी विषयों में जब दौड़ लगाये फिर रहा है कभी किसी को, कभी किसी को ग्रहण किया, राग किया, अपराध किया, इस मन की परिणति से ये सारी विडंबनाएँ बन रही हैं। मनुष्य की बात कह रहे हैं, अन्य जीव जिनके मन नहीं होता वे भी विषयों के नाते तो ऐसे ही काम किए जा रहे हैं। भले ही मन का सहयोग न होने से पशु-पक्षी कलात्मक ढंग से नहीं कर पाते, आहार संज्ञा जैसे मनुष्यों में लगी है और उससे प्रेरित होकर उस ही विषय में रहा करते हैं, यह बात एकेंद्रिय दोइंद्रिय आदिक सभी जीवों में लगी हुई है। मनुष्य के मन है सो वह कलात्मक ढंग से आहार संज्ञा की पूर्ति करता है। नाना प्रकार के स्वादिष्ट रसीले भोजन बनाये जाते हैं। ये बातें असंज्ञी जीवों में नहीं पायी जाती। तो यह एक मन का सहयोग इसे मिला है। जो मन हित और अहित के विश्व के लिए था उस मन को मन के असली काम में न लगाकर एक असंज्ञावों में लगा दिया तो ये कलायें बन गयी। अन्य जीवों में कलायें नहीं हैं। मनुष्य के मन है तो भयसंज्ञा भी बड़ी कलात्मक ढंग से किया करता है। कितना भय लगा रखा है? और तर्क वितर्क करके भय लगा रखा है। जायदाद का कोई कानून बन जायगा तो क्या करेंगे? जमीदारी का जैसे कानून बन गया ऐसे ही यह भी संभव है। अथवा अन्य किसी देश ने इस पर आक्रमण किया तो क्या होगा अथवा अपने ही देश के लोग अधिकारीजन अप्रसन्न हो गए तो क्या होगा? कितना भय बना रखा है? क्या ऐसा भय इन कीड़ा-मकोड़ो को भी रहता है? ये तो तभी डरते हैं जब इनके समक्ष कोई उपद्रव आ जाय। चींटी चल रही है आपने हाथ से छेड़ दिया तो वह भय करके लौट जायगी, पर मनुष्यों को भय कितनी कलावों से लगा हुआ है, पर भयसंज्ञा जैसे मनुष्यों को सताती है वैसे ही अन्य सब संसारियों को सताती है। मैथुन संज्ञा मनुष्य कितने कलात्मक ढंग से बड़ी रागभरी वाणी बोलकर पूर्ति करता है तो अन्य जीवों में असंज्ञी जीवों में यह विलक्षण नहीं है। वहाँ मन नहीं है, कलायें नहीं बनती, पर जैसा कुछ उसके मन में समाया है उस प्रकार उनके भी संज्ञा लगी है। परिग्रह संज्ञा में तो मनुष्य ने बड़ी होड़ सी मचा ली है। बड़ी कलायें कैसे-कैसे व्यापार, कैसी अन्य कलायें इन सब कलावों से इस मनुष्य ने परिग्रह संज्ञा का एक ढाँचा विचित्र बनाया है। नहीं बना सकते हैं असंज्ञीजीव यों परिग्रहसंज्ञा का विस्तार, क्योंकि मन नहीं है लेकिन परिग्रहसंज्ञा इन सभी संसारी प्राणियों में है और वे अपने भावों के अनुकूल अपनी योग्यतानुसार जो शक्ति उनके प्रकट हुई है तदनुसार वे भी परिग्रह संज्ञा में लगे हैं। तो यहाँ मनुष्यों को मन मिला है, इस मन के कारण इसने अपना वैभव बढ़ाया है। कार्य तो यह था कि इस मन के द्वारा विवेक जगता, पापों से दूर होते और अपने ज्ञान में बने रहते। ज्ञानवासित मन हो जाय तो समझिये कि साध्यसिद्ध हो गया। साध्य है निराकुलता, शांति, परमविश्राम, वह मुझे मिल गया समझिये। जिसका चित्त ज्ञानवासित हो गया उसके लिए निर्दोषता और स्थिरता की आवश्यकता है। जिसका मन स्थिर हो गया, प्रसन्न हो गया और ज्ञान में वासित हो गया उस मुनि का साध्य सिद्ध हो गया। अब काय के दंडन से लाभ क्या है?