वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1095
From जैनकोष
असंतोऽपि गुणा: संति यस्यां सत्यां शरीरिणाम्।
संतोऽपि यां विनां यांति सा मन:शुद्धि: शस्यते।।1095।।
मन:शुद्धि होने पर ही गुणों का अस्तित्व― जिस मन की शुद्धता के होने पर न होते गुण भी होते से बन जाते हैं और जिस शुद्धि के न होने पर होते गुण भी न होते हो जाते हैं वह मन की शुद्धि प्रशंसा के योग्य है। लोग कहते हैं कि व्यापार कुटिलता और कपट के बिना नहीं चलता और आपको ऐसे दो एक उदाहरण मिलेंगे आसपास की जो बहुत सरल व्यक्ति थे, जो कभी किसी का बुरा न विचारते थे, उनके चित्त में बुरा ध्यान ही नहीं होता और देखो तो ग्राहक उनके यहाँ ज्यादा आते हैं।तो लोगों पर यह विश्वास बन जाय कि यह दुकानदार सरल है और सच बोलने वाला है तो लोग ज्यादा आयेंगे। जो लोग झूठ बोलकर भी व्यापार चलाते हैं वे झूठ के बल पर नहीं चला पाते, ऐसा अगर ग्राहकों को मालूम पड़ जाय कि यह झूठ बोलने वाला है तो एक भी ग्राहक न आयगा। तो व्यापार भी सच्चाई के साथ चलता है। मन की शुद्धि जिसके हो गई है तो गुण न हों तो भी गुणी हो जाता है। होने से लगते हैं यह भी बात नहीं, किंतु प्रकट हो जाते हैं, पर गुण विकास का कारण तो मन की शुद्धि है, आशय की शुद्धि है। आत्मा का अभिप्राय शुद्ध बने तो सब गुण अपने आप प्रकट हो जाते हैं। सो कोई गुण के वाक्य की बात नहीं किंतु जब आनंद होता है जीव को तब गुण विकासपूर्वक ही हुआ करता है, अतएव गुण विकास को महिमा दी है। महिमा तो सब शांति की है। अपने आपमें आनंद प्रकट हो जिस उपाय से वह उपाय करना है। कदाचित् ऐसा होता है कि गुण एक भी प्रकट नहीं होता और आनंद पूर्ण मिल जाय तो फिर गुणों से क्या हमारा लेनदेन? हो तो हो, न हो तो न हो, हमें तो आनंद चाहिये पर आनंद की विधि ही ऐसी है कि गुणविकास होगा तो होगा। आनंद का अर्थ ही यह हैकि जो चारों ओर से आत्मा को समृद्ध बना दे। सुख का नाम, निराकुलता का नाम, शांति का नाम आनंद नहीं, किंतु आत्मा की समृद्धि का नाम आनंद है और उस आत्मसमृद्धि में यह खूबी है कि वहाँ पूर्ण निराकुलता रहती है। आनंद का तो वास्तविक अर्थ यही है कि वह आत्मा को पूर्ण समृद्ध बना दे। यह समृद्धि आत्मशुद्धि होने पर होती है, विषयों की वासना न रहे, किसी के प्रति द्वेष की बात न उमड़े और अपने आपके सहज स्वरूप की ओर दृष्टि जाय, यही है मन की शुद्धि।
मन:शुद्धि के उपाय―मन की शुद्धि जिन उपायों से बने उन उपायों के संबंध में पूजक रोज कह लेते हैं पूजा में―
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुति: संगति: सर्वदार्यै:,
सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम्।
सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे,
संपद्यंताम् मम भवभवे यावदेतेऽपवर्ग:।।
हे प्रभो ! ये 7 चीजें मुझे भव-भव में प्रकट हों जब तक कि मेरा मोक्ष न हो। वे 7 बातें क्या हैं? शास्त्राभ्यास― इससे मन की शुद्धि बनती है। उपन्यास पढ़ने वालों का चित्त कैसा भयभीत, चिंतातुर, कामातुरसा बना रहता है और इन साधु संत पुरुषों की वाणी सुने, उसका स्वाध्याय करे तो आत्मबल बढ़ाने का एक उत्साह जगेगा। तो मन की शुद्धि के लिये शास्त्राभ्यास एक मुख्य उपाय है। ये सब आत्मशुद्धि के उपाय हैं। आत्मा और मन में इस समय भेद यों नहीं डाल रहे हैं कि हमें इस समय जो करना है उस कर्तव्य का रिश्ता जितना मन के साथ है उतना ही आत्मा के साथ है। यहाँ मन से मतलब पौद्गलिक मन से नहीं पर भाव मन से है। प्रथम उपाय हे शास्त्र का अध्ययन करना। दूसरा उपाय है― जिनेंद्र भगवान के चरणों में नमस्कार विनय ध्यान बना रहना। इससे मन शुद्ध रहता है। तीसरा उपाय है सत्संगति। श्रेष्ठ पुरुषों के साथ अपना संग बनाये रहना इससे भी तत्काल प्रभाव पड़ता है। इसका उपाय है सत्चरित्र के गुणों की कथा करना। देखिये―जो महान होते हैं, बुद्धिमान होते हैं, विद्यावान होते हैं, पंडित होते हैं अर्थात् विवेक को जिनकी बुद्धि प्राप्त हुई है ऐसे जन होते हैं उनकी चर्या भी अलग होती है। दुनिया में ऐसे मनुष्यों की संख्या ज्यादा मिलेगी जो एक दूसरे की निंदा आलोचना में लगे रहते हैं। विद्वान होंगे तो आलोचना भी उस कला के ढंग से करेंगे और ऐसे ही हुये तो वे अपने पड़ोसियों के प्रति अन्य के प्रति भी निंदा आलोचना की बात करेंगे। ऐसे बुद्धिमान विवेकी बिरले ही होंगे जिनके मुख से सत्चरित्र के गुणों की कथा तो मुँह पर आये और दूसरे के दोषों के कहने में मौज न रहे। और, मन की शुद्धि इन्हीं उपायों से है। जिस समय हमने दूसरों के अवगुणों पर दृष्टि दी या अवगुण परखने के लिये यत्न किया तो अवगुणों पर ज्ञानदृष्टि डाले बिना तो बखान नहीं सकते और उस पर दृष्टि डालने का अर्थ यह है कि हम अपने उपयोग में उन अवगुणों को पहिले आत्मसात कर लें, ज्ञेय कार बना लें, उन्हें रुचि से ग्रहण कर लें तो रुचि से बखान सकेंगे। तो हमने अपने को बहुत मलिन कर लिया और उस मलिनता का फल भोगना किसी दूसरे को न पड़ेगा। तो मनशुद्धि के उपाय में ये दो भी उपाय अच्छे हैं कि गुणियों के गुणों की कथा करना और दूसरों के दोष कहने में मौन ग्रहण करना। यह सब मनशुद्धि के उपायों में लगा लेना चाहिये। छठी बात है― सब जीवों पर प्रिय हित वचन व्यवहार करना। कुछ लोगों की आदत जैसे मनुष्यों को गाली देने की होती है इसी तरह वे पशुओं को भी गाली देते हैं। वही गाली, उनकी दृष्टि में पशु भी वैसे ही, मनुष्य भी वैसे ही, मनुष्य और पशु इन दोनों को एक तुल्य मान लेते हैं। जैसे गाली मनुष्य को मनुष्य के प्रतिकूल होने पर दिया करते हैं वैसी ही गाली बैल, घोड़ा, भैंस इनके प्रतिकूल होने पर या अनुकूल न चलने पर दिया करते हैं। तो अप्रिय और अहित वचन बोलने का प्रभाव स्वयं पर पड़ा। और दूसरा भी अपने में प्रभाव बना लेगा तब तो लड़ाई ठन जायगी। तो सब जीवों पर प्रिय हित वचन व्यवहार करना यह आत्मशुद्धि का, मनशुद्धि का उपाय है और आत्मतत्त्व में भावना करना मैं सिद्ध समान शुद्ध चैतन्यस्वभाव वाला हूँ, अंतर है पर रुचि का ऐसा चमत्कार है, उसकी ऐसी प्रकृति है कि जिनमें रुचि नहीं हैउनको तोड़ फोड़कर, उनको न छूकर रुचि के विषयभूत पदार्थों में यह दृष्टि गड़ जाती है।
अंतस्तत्त्व के रुचिया संतों की अवाध सद्दृष्टि― जिसकी आत्मस्वभाव पर रुचि है वह पुरुष यथार्थ को भी भेदकर जो गुजर रही है उसमें भी न अटककर ज्ञानस्वभाव पर पहुँच जाता है। किसी की रुचि किसी अन्य जगह रहने वाले किसी जीव पर है तो घर में रह रहे हैं सभी माता पिता आदिक इनको हित जान लिया। इनकी दृष्टि उनमें नहीं अटकती है, जिस पर दृष्टि है वही पहुँचती है। तो रुचि अंतस्तत्त्व की बने तो वह पुरुष आज यद्यपि किसी विषय पर्याय से परिणत है, वह मनुष्यभव में है, अनेक बंधन हैं लेकिन इसकी दृष्टि में न भव है, न बंधन है, न परिणति है, होते हुए भी इसकी दृष्टि में नहीं है जबकि इस ज्ञानी की भावना आत्मतत्त्व में पहुँचती है। उस समय यह अपने को एक स्वरूपमात्र निरखता है। उसका यदि विश्लेषण करें तो फिर निषेध रूप में कह लो। उस समय यह अपने को भवरहित, परिणतिरहित, बंधनरहित निरखता है, यों नहीं निरखता पर उसकी तारीफ बतायी जा रही है। यह तो किसी विध्यात्मक रूप को निरखता है, प्रतिषेधरूप से नहीं। अनुभव के काल में निषेध का ध्यान नहीं है। जो हे उसका सद्भावात्मक परिणमन है। मन की शुद्धि होने पर आत्मशुद्धि होने पर फिर यह आत्मतत्त्व की भावना ऐसी दृढ़ हो जाती है कि इसे अपवर्ग प्राप्त होता है। अपवर्ग मायने है मोक्ष, पर एक तारीफ की भाँति है। अपवर्ग का अर्थ है वर्गरहित। जैसे पदवी से अपवर्ग दूर हो गये हैं। वर्ग हैं तीन―धर्म, अर्थ, काम, ये तीन वर्ग जिस भाव में नहीं हैं उस भाव का नाम है अपवर्ग। और मोक्ष का अर्थ है छुटकारा। जो कर्म शरीर आदिक बंधन है उनसे छुटकारा हो गया इसका नाम हैमोक्ष। निर्वाण नाम है शांति होने का, निष्तरंग हो जाने का। जो ऊधम उठ रहा था, जो विकल्पजाल बन रहे थे वे सब शांत हो गए उसका नाम है निर्वाण। तो ये सब बातें मनशुद्धि पर निर्भर हैं। हम आपको इन्हीं सब उपायों को करके मन शुद्ध कर लेना चाहिए। निर्विषय, निर्विरोध मन बनने का नाम है मन की शुद्धि।