वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1112
From जैनकोष
महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसंगमोत्सुकै:।
योगिभिज्ञर्नाशस्त्रेण रागमल्लो निपातित:।।1112।।
ज्ञानशास्त्र के द्वारा रागमल्ल का निपातन:― मुक्तिरूपी लक्ष्मी के संग की चाह करने वाले ऋषीश्वरों ने महान प्रशमरूपी संग्राम में ज्ञानरूपी शस्त्र से रागरूपी मल्ल का निपात कर लिया। कोई संग्राम हो तो किसी प्रयोजन के लिए ही तो संग्राम होता है। जैसे पहिले सुना जाता था कि किसी राजकन्या के विवाह के लिए संग्राम होता था तो कन्या को चाहने वाले लोग जो संग्राम करते थे वे शस्त्रों से ही तो करते थे और उसमें जिसे बाधक माना उसका हनन करते थे। तो यहाँ है मुक्ति की चाह। सो इस मुमुक्षु को इन रागद्वेषादिक विकारों से संग्राम करना पड़ रहा है। इन रागादिक शत्रुवों से संग्राम करने के हथियार हैंप्रशम, क्षमा, तत्त्वज्ञान। उनके द्वारा ये रागादिक क्षीण कर दिये जाते हैं। दु:ख का कारण है राग। और राग को दूर करने का उपाय है प्रशमभाव, तत्त्वज्ञान। सो उस ज्ञानशस्त्र से, प्रशमशस्त्र से रागादिक बैरियों का विनाश योगीश्वर कर देते हैं।झगड़ा कि स बात पर इतना लदा हुआ है, कितना बड़ा यह उत्पात है, कितनी बड़ी यह विडंबना है कि शरीर मिला और शरीर भी अटपट। इस अटपट शरीर में यह आत्मा फँसा हुआ है। न इसका ज्ञान बढ़ सक रहा न आनंद मिल रहा, इतनी सब तो विडंबनाएँहैं। इन सारी विडंबनाओं के मूल कारण की खोज की जाय तो कारण यही मिलेगा कि अन्य पदार्थ में इसने कल्पना कर ली हैकि यह मैं हूँ। इतना तो हुआ एक विरुद्धभाव कर लेने का अपराध और उस पर छा गया है इतना बड़ा जाल। तो जब मूल की गलती निकाल दी जाय, परतत्त्वों में, परपदार्थों में यह मैं हूँ इससे मेरा हित है, यह मेरा है, इस प्रकार का आशय न रहे तो फिर ये सारी विडंबनाएँदूर हो जाती हैं। देखिये― ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं, श्रम नहीं, कठिन बात नहीं। इतने पदार्थों को जानते तो रहते हैं। गाँव, नगर, लोग यह सब ज्ञान का ही तो आना है। तो जैसे ये जानने में आ जाते हैं, इस तरह वस्तु का स्वरूप भी जानने में जो आ सकता है। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में है। मैं एक चिदात्मक स्वरूपमात्र हूँ, यह जानने में आ गया तो फिर आ ही गयाजानने में। अब दूसरी बात क्या बने? यथार्थ निर्णय हो जाय तो उसे फिर सब मार्ग मिल जाता है।