वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1163
From जैनकोष
क्षुभ्यंति ग्रहयक्षकिंनरनरास्तुष्यंति नाकेश्वरा:,
मुंचंति द्विपदैत्यसिंहशरभव्यालादय: क्रूरताम्।
रुग्बैरप्रतिबंधबिभ्रमभयभ्रष्टं जगज्जायते,स्याद्योगींद्रसमत्वसाध्यमथवा किं किं न सद्यो भुवि।।1163।।
समतापरिणाम से युक्त योगीश्वरों के प्रभाव से अन्य बड़े-बड़े विशिष्ट जीवों पर प्रभाव पड़ता है। वे अपने दुष्परिणामों को त्यागकर प्रसन्नता के परिणामों में रहा करते हैं, यही क्षोभ कह लीजिए। क्षोभ में दोनों बातें होती हैं― हर्ष भी और विषाद भी। कोई प्रकार की नई बात उत्पन्न होना यह बात योगीश्वरों के प्रभाव से उत्पन्न होती है तथा शत्रु दैत्य सिंह और क्रूर जानवर सर्प आदिक अपनी क्रूरता छोड देते हैं। जैसे कुछ तो अंतर आता है ना। जब मंदिर में बैठे हों, शास्त्रसभा में हों तो परिणामों की विह्वलता में कुछ अंतर आता है ना? स्थान का एक प्रभाव है ऐसा, इसी प्रकार संगति का भी एक अचूक प्रभाव है। क्रूर पुरुष भी अपनी क्रूरता की परिणति को त्याग देते हैं, अपने आपमें शांत और निराकुल बन जाते हैं। तो सत्संग से ज्ञानी संतों के प्रभाव से लोग हर्षित होते हैं और क्रूर पुरुष क्रूरता को तजते हैं तथा ये जगत, राग, बैर, प्रतिषेध, विभ्रम, भय आदिक से प्रथम तो योगियों की मुद्रा दिख जाती है। न त्रिशूल हे, न शस्त्र है, न लाठी है और यहाँ तक कि उनके सिर के दाढ़ी के बाल भी बड़े नहीं होते। चार माह में केश लोच करने का नियम है, तो ऐसी उनकी मुद्रा है कि जिससे भयानकता नहींटपकती। और शस्त्र आदिक न होने से किसी मनुष्य को उनसे शंका नहीं रहती। तो उनकी मुद्रा निरखकर लोगों के भी विश्वास में शीघ्र आ जाता है, इनसे मेराअहित न होगा हित ही होगा। जैसे यह भावना भर लेते है लोग इसी प्रकार योगीश्वरों के निकट रहने वाले क्रूर भी पुरुष अपनी क्रूरता का परिणाम छोड़ देते हैं और शांतचित्त होते हैं। इस पृथ्वी में ऐसा कौनसा कार्य है जो योगीश्वरों के समतापरिणाम में सिद्ध न हो सके साधुभाव से समस्त मनोवांछित कार्य सिद्ध हो जाते हैं। इस संसार में बाहरी पदार्थों के सुधार बिगाड़ के लिए अपनी कल्पना से कितना उद्यम कर डालते हैं, मगर वे उद्यम सफल नहीं हो पाते। दूसरे जीवों के प्रति हम जो कुछ भी चाहते हैं वह कार्य नहीं बनता कि हममें राग और द्वेष भाव भरा है। यह राग न रहे, समतापरिणाम जग जाय तो यह तत्त्वज्ञानी बाहरी पदार्थ से कुछ आशा ही न रखेगा। जो कुछ आशा नहीं रखता उसके मनोवांछित सब कार्य सिद्ध हो गए। जब तक इच्छा रहती है तब तक कार्य सिद्ध नहीं होते। जहाँइच्छा नष्ट हुई तहाँसभी कार्य सिद्ध हुए समझिये और जब तक इच्छा जग रही है तब तक यह ही अनुभव करता रहेगा यह प्राणी कि मेरा तो कोई कार्य बनता ही नहीं। खूब कल्पनाएँकरता, खूब श्रम करता पर मनोवांछित कार्य सिद्ध नहीं हो पाते, इच्छा न रहे तो सब सिद्ध हे और इच्छा रहती हे तो सब असिद्धि-असिद्धि ही प्रतीत होती है। योगीश्वरों के समतापरिणाम के महात्म्य से मनोवांछित कार्य सिद्ध हो जाते हैं।