वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1169
From जैनकोष
चलत्यचलमालेयं कदाचिद्दैवयोगत:।
नोपसर्गैरपि स्वांतं मुनै: साम्यप्रतिष्ठितम्।।1169।।
कदाचित् दैवयोग से चलित हो जाय, पर मुनि का समतापरिणाम से भरा हुआ मन उपसर्गों से भी चलित नहीं होता। आदिनाथ स्तवन में कहा है कि हे नाथ ! यदि आपका मन देवों की देवियों से भी चलायमान नहीं होता तो इसमें आश्चर्य क्या है? हम तो यह भी देखते हैं कि ये बड़े-बड़े मेरू पर्वत आदिक कितनी ही प्रलय काल जैसी आयु चले तो उससे भी हमने इनको चलायमान नहीं देखा तो आपका मन यदि उन देवांगनाओं से चलित नहीं होता तो इसमें आश्चर्य क्या है? मोही जीवों को अंतर में ऐसा ही अज्ञान और मोह का भाव बना होता है जिससे प्रेरित होकर अविवेकी बनकर केवल दिखने मात्र का सुंदर शरीर, किंतु नीचे से ऊपर तक राध, रुधिर, मल, हड्डी, खून, चर्म, पसीना इन सबसे अपवित्र रहता है और सार का इसमें कहीं नाम भी नहीं। ऐसा असार शरीर भी मोही जनों को मोह में अज्ञानवश इष्ट जँचाकरता है। ज्ञानी को तो वह प्रसंग एक आफतसा जँचता और एकदम सीधा सा असार दिखता रहता है तो इतना मन दृढ़ रहता है जिसको तत्त्वज्ञान बहुत-बहुत अभ्यास बढ़ गया है कि कदाचित् भी उपसर्गों से भी मन चलित नहीं होता। श्रद्धा उनकी नहीं बदलती और पर में विषयसाधन में उनका आकर्षण नहीं बनता। चाहे ये पर्वत चलित हो जाय, टूट जायें पर योगी का मन उपसर्गों से चलित नहीं हो सकता। समतापरिणाम की महिमा कही जा रही है। ध्यान का एकमात्र साधन साम्यभाव है और इससे ही ऐसा निर्विकल्प ध्यान बनता है कि कर्मों का क्षय होकर अनंत आनंद की प्राप्ति इस ही उपाय से होता है।