वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 117
From जैनकोष
उत्पद्यंते विपद्यंते स्वकमनिगडैर्वृता:।
स्थिरेतरशरीरेषु संचरंत: शरीरिण:।।117।।
जीवों की उलझ और सुलझ― ये संसारी जीव अपनी-अपनी कर्म बेड़ियों से बंधे हुए स्थावर जीवों में और त्रस शरीर में संचरण करते हुये मरते रहते हैं और उत्पन्न होते रहते हैं। यह दशा है आज। जबकि स्वभाव यह था कि सारे लोकालोक को विशद जानता रहता और अत्यंत पूर्ण अनाकुलता का अनुभव करता। था तो ऐसा स्वभाव, किंतु अपनी सुध भूलकर अत्यंत भिन्न असार जिससे अपना कोई संबंध नहीं, भिन्न-भिन्न सत्त्व रखने वाले हैं ऐसे चेतन और अचेतन परपदार्थों में इसने अपने आपके प्रदेशों में विकल्पजाल गूँथ लिया है और जैसे एक हवा का निमित्त पाकर पताका, ध्वजा अपने आपमें ही उलझ जाती है ऐसे ही ये जीव जो कुछ करते हैं, निमित्त कुछ मिला अपने आपमें ही उलझते हैं और कभी सुबुद्धि मिले तो अपने आपमें ही सुलझ जाते हैं।
देहधारियों के निर्माण पर तर्क― कोई यहाँ तर्क करे, कैसे बन जाते हैं? ये जीव ऐसे त्रस बन गया, कीड़ा बन गया, मनुष्य बन गया, पेड़, पौधा बन गया, वे सब किस तरह बन जाते हैं? कुछ ठीक-ठीक तो समझावो। हम और बातों को देखो तुम्हें ठीक समझा देंगे। लो घोड़ा यों बन गया, देख लो ना रोटी यों बन गई। बहुत सी चीजें समझा देंगे। जरा मुझे कोई यह तो समझा दे कि ये सब बन कैसे गये? ये गाय, बछिया बन कैसे गये, ये आदमी बन कैसे गये? क्या समझाया जाय? यहाँ तो हम आप लोगों के हस्तादिक व्यापारों का निमित्त पाकर ये खेल-खिलौने, रोटी, घोड़ा, कपड़े बन जाया करते हैं। इन्हें भी कोर्इ अच्छी तरह समझा नहीं सकता। मोटी दृष्टि से समझ में आता है कि ये पदार्थ यों बन गये। भला बतलावो तो तुमने हाथ का व्यापार किया तो हाथ में किया, ये बाह्यपदार्थ ऐसे कैसे बन गये? खैर उसका समाधान शायद व्यवहारिक क्षेत्र के आने के कारण कल्पना में हो जाता हो, फिर भी यहाँ के समाधान की पद्धति निमित्तनैमित्तिक विधि है, उसके बिना समाधान की कोई दिशा नहीं बन सकती। तब इसी प्रकार ये त्रस स्थावर कीड़े, मकौड़े, पशु, मनुष्य आदिक के बनने में भी वहीं निमित्तक पद्धति का विधान है।
परिणाम का वातावरण― जीव जैसा परिणाम करता है, इस जीव के ही निकट कोई सूक्ष्म वातावरण ऐसा बन जाता है जो उस परिणाम के अनुरूप कुछ प्रभाव डाल सके। जैसे कोई एक मनुष्य तीव्र क्रोध करता हे तो उसके क्रोध के कारण आसपास का वातावरण भी क्षुब्ध और कुछ भयंकर हो जाता है। कोई पुरुष शांत चित्त होकर शांति की वार्ता करे और शांति का ही कार्य करे तो उसे निकट के वातावरण की स्थिति ऐसी बन जाती है कि वहाँ के आसपास के रहने वाले लोग भी शांति का अनुभव करते हैं। यही बात तो समवशरण में हुआ करती है। प्रभु तीर्थंकर जहाँ विराजे हैं उनके निकट का वातावरण ऐसा शांत हो जाता है कि बिल्ली, चूहे, साँप, नेवले, हिरण, शेर परस्पर विरोधी जाति के जानवर वहाँ एक जगह खड़े रहते हैं। यह है ना आत्मशक्ति।
आत्मशक्ति की विजय― शस्त्र के बल पर कोई कब तक जिंदा रहेगा? आखिर मरण उसका भी होता है और एक आत्म–आराधना में रहने वाला संत शस्त्रों से रहित है। केवल एक अपने आपको ही अपना वैभव एकमात्र सहारा मानकर रहता है, उसका भी जीवन जब तक है तब तक ठीक चलता है और जितना उपकार अथवा रक्षा कोई एक शस्त्र वाला कर सकता है उससे भी कई गुना उपकार और लोगों की रक्षा शस्त्र रहित, किंतु उदार सौम्य शांत प्रकृति का लाग लपेट लोभ लालच से रहित प्रकृति का मनुष्य कर सकता है। तीर्थंकर तो मनुष्यों में उत्तम हैं, उनके निकट का ऐसा शांत वातावरण रहता है कि क्रोध की दिशावों में तो परस्पर विरोधी जीव भी शांत होकर बैठते हैं, मान की ओर देखो तो मानस्तंभ के निकट आकर बड़े-बड़े मानी भी अपना मान त्याग देते हैं। माया, छल, कपट का तो वहाँ कुछ ख्याल नहीं रहता है। सीधा प्रभुगुण, प्रभुस्वरूप की ही वार्ता रहती है। लोभ वहाँ क्या करे, अपना सब कुछ प्रभु के लिये समर्पण किया जा रहा है। देवी देवता मनुष्य बड़े संगीत गीत साजधाज के साथ जो वहाँ भक्ति प्रदर्शन करते हैं उनके उपयोग में उस समय यह समाया रहता हे कि मेरा सर्वस्व प्रभु के चरणों में न्यौछावर है। मुझे किसी भी अन्य पदार्थ से कुछ प्रयोजन नहीं है। यदि उस भक्ति के समय किसी अन्य पदार्थ स्त्री, पुत्र, वैभव का लगाव है तो वहाँ भक्ति भी सातिशय बन नहीं सकती। यह सब निमित्तनैमित्तिक भावों की बात चल रही है।