वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1185
From जैनकोष
अनाप्ता वंचका: पापा: दीना मार्गद्वयच्युता:।
दिशंत्वज्ञेष्वनात्मज्ञा ध्यानमत्यंतभीतिदम्।।1185।।
ऐसे पुरुष जिन्होंने ऐसे शास्त्र रचे वे पुरुष अनाप्त हैं, मूढ़ हैं, तत्त्व पर पहुँचे नहीं थे, खुद को भी और दूसरों को भी ठगा था, ऐसे वंचक थे, पापी थे, दीन थे, और न वे इस लोक के रहे, न परलोक के रहे। देखिये कोई योगी यदि स्वयं कुछ पाप कर ले एक तो वह पाप और एक पाप को पुण्य बता जाना, पाप को धर्म बता जाना, शस्त्र लिख जाना और चाहे कोई स्वयं पाप न किया हो तो आप यह बतलावो कि उन दोनों में से अधिक पापी कौन है? सो उन दोनों ऋषियों में एक तो पापी हो, परिग्रही हो, व्यभिचारी हो, चोर हो, कैसा ही दोष किया हो ऐसे साधु संन्यासी और एक ऐसे साधु संन्यासी जो चाहे खुद बड़ी शत्रुता से रहते हों, और शस्त्र ऐसे लिखे जाते जिसमें सारा पाप का ही उपदेश है जिसमें पापकार्यों को ही धर्म बताया है। तो आप जरा बतावो कि महापाप किसने किया है? जो खोटे शास्त्र रच जायें वह पाप अन्य पापों से भी अधिक है। सो ही लिख रहे हैं कि जो मुनि अनाप्त थे, अज्ञान वंचर दीन, जिनका न यह लोक सफल रहा, न परलोक सफल रहा, उन्होंने ऐसे शास्त्र रचे जिनमें पाप को पुण्य कहा, धर्म कहा, पाप से सिद्धि बताया, ऐसे शास्त्रों को अनेक अज्ञानी रच गए। बताया यह है कि मनुष्यजन्म मिला तो था इसलिए कि मैं कुछ करनी ऐसी कर जाऊँ, अपना विशुद्ध ध्यान बना लें, कुछ धार्मिकता आत्मा में लायें जिससे जन्म मरण से छुटकारा मिल सके, पर अपनी बुद्धि का कैसा दुरुपयोग किया कि खोटे शास्त्रों के रचने में लगा दिया। ज्ञान पाया तो मोह के बढ़ाने में इस ज्ञान को लगाया। बड़े ऊँचे-ऊँचे रागभरे वचनों से दूसरों में प्रेम उप जाना, अर्थात् प्रीति भाव बढ़ाना यह सब वचनों द्वारा किया। ज्ञान पाया तो उस ज्ञान का ऐसा उपयोग किया कि अपने मोहभाव को ही बढ़ाया तो यह बड़े खेद की बात है। जैसे कोई अमृत को विष बनाकर पीले तो वह मूढ़ है, ऐसे ही कुछ मूढ़ पुरुषों ने ज्ञान पाकर उस ज्ञान को विषयकषायों में, खोटे शास्त्रों के रचने में, मोह के बढ़ाने में लगाया सो यह खेद की बात है। देखिये जैसे पर्वत से गिरने वाली नदी का वेग पुन: वापिस लौटकर नहीं आता, जो धार पर्वत से नीचे गिरी सो तो गिर ही गयी, ऐसे ही इस जीवन के जो क्षण व्यतीत हो गए, वे फिर लौटकर नहीं आते हैं। कोई बूढ़ा, भला बालक अथवा जवान बनकर दिखा दे ऐसा तो कोई नहीं कर सकता। हाँ मरकर फिर कहीं बच्चे के रूप में पैदा हो जाय, वह बात अलग है। जब ऐसी बात है कि जीवन के बीते हुए क्षण वापिस नहीं आते तो शीघ्र ही अपने इस दुर्लभ जीवन में जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका सदुपयोग कर लें। अधिकाधिक सत्संग हो, स्वाध्याय हो, ज्ञान की बात अधिक सुनने में आयें, प्रभु की महिमा, प्रभु का स्वरूप हमारे ज्ञान में विशेष बर्ते, यों बात कुछ तत्त्वज्ञान की चले तो उससे जीवन को सफल माने। इन बाहरी विभूतियों से अपने जीवन की सफलता का अंदाज न लगावें। हमने कितनी शांति पायी है, कितनी पवित्रता पायी है, हम कितना निर्मोह होकर रह सकते हैं। इस और दृष्टि जाय।