वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 119
From जैनकोष
कल्पेषु च विमानेषु निकायेष्वितरेषु च।
निर्विशंति सुखं दिव्यमासाद्य त्रिदिवश्रियम्।।119।।
दिव्य सुखों से भी जीवों की अरक्षा― वहाँ देवगति में कल्पवासियों के विमानों में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी इन देवों में अनेक दिव्य लक्ष्मी पाकर वे देवाधिदेव सुखों को भोगते हैं, पर जिसे फाँसी लगने का हुक्म हुआ है वह फाँसी लगने से पहिले हँसकर खूब भोग भोगकर चैन माने तो उसके चैन की क्या कीमत है? ऐसे ही मृत्यु दंड से दंडित होने का जिसका निर्णय हो चुका है ऐसा यह प्राणी संसार के सुखों को भोगकर सुख माने, चैन माने तो उसकी क्या कीमत है? यह संसार सर्वत्र दु:खों से भरा हुआ है। जो दु:ख है संसारी जीवों की कल्पना में माना हुआ वह तो दु:ख ही है, किंतु जिसे ये संसारीजन सुख मानते हैं वह सुख भी वास्तव में दु:ख है। कितनी बड़ी विपदा है? किसी दूसरे जीव से, किसी दूसरे पदार्थों से इस विभक्त आत्मा का रंच भी संबंध नहीं है लेकिन यह अपनी ओर से ही अकेला उन पदार्थों से अपने को समृद्धिशाली समझता है, संबंध मानता है, कल्पनाएँ उठाता है। ये कल्पनायें ही एक बहुत बड़ी विपदा हैं। इस जीव पर विपदा अंतरव्यक्त अनंत विपदावों का कारण बन जाती है। यों ज्ञानीपुरुष संसार के स्वरूप का चिंतन कर रहा है। यह संसार अहित करने वाला है और यह अत्यंत असार है। इस संसार में सारभूत बात कुछ नहीं है। यहाँ संभलकर रहने की जरूरत है। आत्मा की सुध होना ही अपनी वास्तविक संभाल है। अपने आपका यथार्थ परिचय करें और अपने को इस असार संसार से सावधान बनाये रहें, अपनी संभाल से ही अपनी रक्षा है।