वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1205
From जैनकोष
स्वल्पानामपि रोगाणां माभूत्स्वप्नेपि संभव:।
ममेति या नृणां चिंता स्यादार्तं तत्तृतीयकम्।।1205।।
इस रोग पीड़ा चिंतवन नामक आर्तध्यान में कैसी बुद्धि उत्पन्न होती है कि उसके किंचित भी रोगों की उत्पत्ति स्वप्न में भी नहीं होती, ऐसा चिंतन होना और न होने देने के लिए एक शोक और चिंता बनाये रहना यह तृतीय आर्तध्यान है। अध्यात्म दृष्टि से सोचिये तो यह जो शरीर का ढांचा मिला है यह महारोगी है। यह बिस्तर रोगों से भरा है। इसे बिस्तर क्यों माना गया? बिस्तर से केवल बिस्तर की ही बात नहीं है। बिस्तर उनके होता है जिनके बड़े-बड़े ठाठ-बाट हैं, आराम के साधन है। जो निष्परिग्रह हैं, त्यागी लोग उनके पास कहाँ बिस्तर है? तो यह शरीर बिस्तर महारोगी है। कहाँ तो यह अमूर्त आत्मा आनंदमय था, अपने आपके स्वरूप के प्रकाश से सदैव पवित्र था, अब लग गया यह संग बिस्तर। इसके लगने पर भ्रम बढ़ा, यह मैं हूँ, और जब शरीर को माना कि यह मैं हूँ तो उसकी फिर यह रक्षा करता है। लोग ऐसी भावना करते हैं कि स्वप्न में भी कभी मेरे शरीर में रोग न उत्पन्न हो।