वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1208
From जैनकोष
इष्टभोगादिसिद्धयर्थं रिपुघातार्थमेव वा।
यन्निदानं मनुष्याणां स्यादार्त्त तत्तुरीयकं।।1208।।
इष्ट भोगों की सिद्धि के लिए और शत्रु के घात के लिए जो निदान होता है वह भी चौथा आर्तध्यान है। कोई क्रोध में जल रहा है, तो कोई चाह में जल रहा है, कोई दोनों जगह जल रहा है। क्रोध का तो लोगों को पता नहीं पड़ता। तो चाह और क्रोध दोनों ही समान अग्नि हैं, बल्कि यों कहो कि चाह की आग प्रबल है। इच्छा में ही बना रहे उपयोग तो उसे कोई स्वरूप समझ में नहीं आता। तो अपने भोगों की सिद्धि के लिए चाह करना अथवा शत्रु के घात के लिए चाह करना वह सब निदान है। जिससे बैर हो जाय जो अपना अनिष्ट जँचे उसको समूल नष्ट करने की अज्ञानी जीव भावना करते हैं और जगह-जगह भटकते हैं, मंत्र पूछते हैं, साधना करते हैं कि मेरे इस शत्रु का विनाश हो। तो ऐसी जो धुन बनी है, चाह बनी है वह भी आर्तध्यान है।