वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1210
From जैनकोष
अपथ्यमपि पर्यंते रम्यमप्यग्रिमक्षणे।
विद्धयसद्धयानमेतद्धि षड़गुणस्थानभूमिकम्।।1210।।
हे आत्मन् ! यह आर्तध्यान प्रथम क्षण में रमणीक है पर अंत में क्लेश के ही देने वाला है, ऐसे इस अप्रशस्त ध्यान का निदान करते हैं, इच्छा करते हैं तो इच्छा सुहावनी लग रही है लेकिन उसका अंत में परिणाम जीव को क्लेशकारी ही बनेगा। सो आचार्यदेव संबोधित कर रहे हैं कि हे आत्मन् ! कोई-कोई आर्तध्यान प्रथम क्षण में रमणीक लगेंगे लेकिन उनका अंतिम परिणाम खोटा ही है, ऐसे इस तथ्यभूत ध्यान को जान। ये आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक होते हैं। एक निदान नाम का आर्तध्यान भी नहीं होता, मगर होने लगे तो छठे गुण स्थान के परिणाम नहीं रहते हैं। प्रशस्त ध्यान भी, निदान भी लगे तो वह मुनि की भूमिका नहीं रही, वह तो श्रावक की भूमिका रही। मुनि भेष में न रहना ही श्रावक नहीं कहलाता है, वह तो एक अंतरंग परिणामों की बात है। हाँ यह बात है कि छठे-सातवें गुणस्थान के लायक परिणाम हो तो वह मुनि है और चाहे निर्ग्रंथ ही हो पर चौथे, तीसरे, दूसरे, पहिले गुणस्थान के लायक परिणाम हों तो वह मुनि नहीं कहला सकता है। तो जब तक निदान की बात रहेगी, मैं उत्कृष्ट पद पाऊँ, अमुक जगह मेरा जन्म हो, बड़े ठाठ-बाटों की चाह होना आदिक ये सब निदान हैं। इष्टवियोग, अनिष्टवियोग, वेदनाप्रभव ये तीन आर्तध्यान छठे गुणस्थान में भी संभव है। कोई मुनि जो बच्चों वाला है वह यदि पुत्र के मर जाने पर वियोग करे तो वह तो एक मोह की भूमिका है, वह तो मुनिपद से बिल्कुल विचलित हो गया। कोई बुद्धिमान और शांतिपथ का प्रेमी शिष्य है और उसका वियोग हो रहा है तो उसके वियोग के समय कुछ पीड़ा मुनि को भी हो जाती है। फिर भी उसका गुणस्थान नहीं बिगड़ता। और कोई शिष्य अनुकूल नहीं चलता, अवहेलना करता है, बात नहीं मानता है, धर्म के विरुद्ध भी चलता है, परिस्थिति ऐसी है कि उसे एकदम हटा भी नहीं पा रहे, सामने मौजूद है, तो उस अनिष्ट संयोग से जो कुछ पीड़ा उत्पन्न हुई, जो मन में खेद आता है वह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। यह तक भी मुनि के संभव है। 7 वें गुणस्थान में नहीं है आर्तध्यान। शरीर में बहुत वेदना हुई, सहन पूरी तरह नहीं कर सकते, कुछ विकल्प भी हो जाते, ऐसा पीड़ा चिंतन नामक आर्तध्यान भी मुनि के संभव नहीं है, पर अज्ञानी की तरह नहीं, तो ये तीन प्रकार के आर्तध्यान मुनि में भी संभव हैं।