वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 122
From जैनकोष
स्वर्गी पतति साक्रंदं श्वा स्वर्गमधिरोहति।
श्रोत्रिय: सारमेय: स्यात् कृमिर्वाश्वपचोपि वा।।122।।
संसार की विचित्रता― संसार की विडंबनायें देखिये, देव तो बड़े रुदन सहित स्वर्ग से पतित हो जाते हैं, मरण करके इस भूलोक में तिर्यंच अथवा मनुष्य बनते हैं और कहीं कुत्ता स्वर्ग में चढ़ जाये, देव बन जाये, ऐसी घटना हुई है। जब सत्यंधर कुमार के पुत्र जीवंधरकुमार ने एक किसी विधिविधान में अज्ञानियों द्वारा सताये गये मरते हुए कुत्ते को नमस्कार मंत्र सुनाया था, उस नमस्कार मंत्र के शब्द श्रवण से जो उसकी विशुद्धि प्रकट हुई उसके प्रताप से कुत्ता भी देव हो गया।
णमोकार मंत्र के मंत्रण की पद्धति― भैया ! णमोकार मंत्र का प्रताप अद्भुत है, किंतु श्रद्धा न होने पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं बनता। अरहंत का क्या स्वरूप है? उस स्वरूप को दृष्टि में रखकर यह सत्य शरणभूत है, ऐसा जानकर उसके निकट बसने का उद्यम करता हुआ ‘णमो अरिहंताणं’ बोले और निर्वाध केवल यथार्थ ब्रह्मस्वरूप को निरख कर यही तो मैं हूँ; ऐसा अपनामत के साथ सिद्धप्रभु की शरण में जाते हुए ‘णमोसिद्धाणं’ बोलें। अपने उपकारक आचार्य परमेष्ठी जो आदेशों द्वारा, उपदेशों द्वारा और उन विधि विधानों द्वारा इन साधुओं का उपकार करते हैं ऐसे उपकारक आचार्य परमेष्ठियों को आंतरिक स्वच्छता, सरलता के निकट अपने उपयोग की पहुँच हो, यहाँ ‘णमो आइरियाण’ बोलें और ज्ञानपुंज, ज्ञान की चर्चा का ही जिनके कार्य हे, पठनपाठन ही जिनका एक मुख्य गुण हो गया है और जो समस्त पंचाचारों का विधिवत् पालन करते हैं ऐसे ज्ञानपुंज उपाध्याय परमेष्ठियों के उस ज्ञानविकास को निरख निरखकर प्रसन्न होते हुए ‘णमो उवज्झायाणं’ बोलें और नाना गुफावों में, वनों में, पर्वतों पर, सागर तट पर, नदी के तट पर विभिन्न परिस्थितियों में, उपद्रवों में अपने ध्यान में लीन रहने वाले साधुवों की आंतरिक रुचि को निरखकर ‘णमो लोएसव्वसाहूणं’ बोलें। ऐसी भक्तिभाव से णमोकारमंत्र का स्मरण करने वाले पुरुष पर जो प्रभाव हो सकता है, वह प्रताप अद्भुत है।
चेतने का अवसर का सुयोग― देखो कुत्ते ने भी णमोकारमंत्र के शब्द के श्रवणमात्र से प्राप्त की हुई विशुद्धि से देवपद प्राप्त किया और बड़े यज्ञ पूजा विधान करने वाले पुरुष एक श्रद्धा के बिना कहो मरकर कुत्ता बन जायें, कीड़ा बन जायें अथवा चांडाल आदिक बन जायें, ये सब संभावनायें सही हैं, देखो इसी प्रकार संसार की ये सब कैसी विडंबनाएँ हैं, ऐसे विडंबनामय संसार में स्वछंद होकर, बेखबर होकर मत भागे-भागे फिरो। इस विषम उपद्रवों से ग्रस्त विश्वास के अयोग्य संसार में स्वच्छंद होकर रमने का काम नहीं है। अपनी संभाल कर ली जायेगी तो भविष्य भी उत्तम बनेगा और अपनी संभाल न होगी तो जैसे अनादि से अब तक भ्रमते चले आये हैं वही भ्रमण जारी रहेगा। चेतने का अभी मौका है। जातिकुल भी उत्तम मिला है, ऐसे अनुपम समागम को पाकर अपना जीवन सफल करने का यह अवसर है। ऐसे अवसर से चुके तो फिर यह अवसर हाथ आने का नहीं है। बड़ी कठिनता से पुन: कभी सुयोग प्राप्त होगा।