वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1224
From जैनकोष
अस्य घातो जयोऽन्यस्य समरे जायतामिति।
स्मरत्यंगी तदप्याहू रौद्रमध्यात्मवेदिन:।।1224।।
जो अध्यात्मवेदी पुरुष हैं उन्होंने बताया है कि ऐसे भी चिंतन करके कि इस जीव की हार हो, इसकी जीत हो अर्थात् किसी का पक्ष रखे और किसी का विरोध रखे यह भी तो रौद्रध्यान है। कोई दो पुरुष लड़ रहे हों अथवा दो तीतर लड़ रहे हों, बिना प्रयोजन ही किसी के जीत जाने और किसी के हार जाने की बात मन में आये तो वह भी रौद्रध्यान है। कभी मित्रजन आपस में बात करते हैं कि देखे अमुक हारेगा अमुक जीतेगा ऐसी पक्ष विपक्ष की बातें सोचना यह सब भी रौद्रध्यान है। किसी युद्ध के प्रसंग में अमुक की हार हो, अमुक की जीत हो इस प्रकार का चिंतन करना भी रौद्रध्यान है। अब इस प्रसंग में एक यह बात जानने की है कि कोई-कोई पुरुष धर्म का पक्ष ले लेते, धर्मी का पक्ष ले लेते, अधर्म के विपक्षी हो जाते, अधर्मी के विपक्षी हो जाते तो क्या यह भी रौद्रध्यान है? सो ऐसी बात नहीं है, वह तो धर्मानुराग की बात है, पर जिससे धर्म का संबंध नहीं है वहाँ किसी के पक्ष विपक्ष में पड़े तो वहाँ सब रौद्रध्यान है। जो मित्रता के नाते से विचार चलता है कि अमुक मेरा मित्र है, इसकी विजय हो, दूसरे की हार हो यह भी रौद्रध्यान में शामिल है। इस रौद्रध्यान को कहाँ तक विस्तार से कहा जाय? इस विश्व में विरले ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को छोड़कर समस्त विश्व के जीवों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान लगा हुआ है।