वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1229
From जैनकोष
हिंसानंदोद्भवं रौद्रं वक्तुं कस्यास्ति कौशलम्।
जगज्जंतुसमुद्भूतविकल्पशतसंभवं।।1229।।
हिंसा में आनंद मानने से जो रौद्रध्यान बना उस रौद्रध्यान की बात को कहने के लिए किसके कुशलता है, रौद्रध्यान में कितना खोटापन है वह बताने में कोई समर्थ नहीं है। रौद्रध्यान आर्तध्यान से भी बुरा है? आर्तध्यान में विवशता है, करे क्या, कुछ ऐसी भी बात है। शरीर में रोग बढ़ गया, भूख बढ़ गयी, जुखाम, खाँसी, ज्वर आदिक हो गया, उसमें कुछ पीड़ा होने लगी, विवश है लेकिन रौद्रध्यान में क्या विवशता है? किसी ने कोई जबरदस्ती की क्या, कोई अटकी थी क्या कि कोई तो तड़फे, किसी का तो घात हो और यहाँ यह संतोष करे, अच्छा हुआ, बहुत उद्दंड था, हमसे सीधी बात भी न करता था। अब आपत्ति में पड़ गया, उसका संतोष कर रहा है। इसमें कौन विवशता की बात है? तो यह रौद्रध्यान एक उद्दंडता की बात है और इसमें बहुत क्रूर आशय होता है। ऐसा ध्यान तो नरक आदिक गतियों का कारण है। हिंसा में आनंद मानने से जो रौद्रध्यान उत्पन्न होता है वह रौद्रध्यान सैकड़ों विकल्पों से उत्पन्न हुआ, इसके परिणाम अनेक पुरुषों को अनेक प्रकार के होते हैं, वे कहने में आ नहीं सकते। किसी का किसी प्रकार का रौद्रध्यान, कोई किसी तरह का मौज मान रहा, कोई हिंसा में, कोई झूठ में, कोई चोरी में, कोई कुशील में, कोई परिग्रह में इन अनात्म भावों में मौज माना जा रहा है, ये कितनी तरह के परिणाम है। उनको कहने के लिए किसमें कुशलता है, अर्थात् कोई नहीं कह सकता।