वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1259
From जैनकोष
इति विगतकलंकैर्वर्णितं चित्ररूपं, दुरितविपिनबीजं निंद्यदुर्ध्यानयुग्मम्।
कटुकतरफलाढ्यं सम्यगालोच्य धीर, त्यज सपदि यदि त्वं मोक्षमार्गे प्रवृत्त:।।1259।।
आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे धीर वीर पुरुष यदि तू मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करना चाहता है तो निंद्यनीय दुर्ध्यान कलंक हो दूर कर। जो ध्यान नाना चित्र-विचित्ररूप है। कोटि देखिये धर्म की जाति एक है और व्यवहार धर्म में भी धर्मात्मावों की प्रवृत्ति एक दूसरे से मिल जायगी। परिणाम करीब-करीब एक हो सकता है पर आर्त और रौद्रध्यान इतने खोटे और विचित्र हैं कि इनकी जातियाँ, इनका विस्तार नाना- रूपों में होता है। तो ये दोनों दुर्ध्यान नाना चित्र-विचित्र रूप हैं और पापरूप वन के बीज हैं। जैसे बीज से अंकुर उत्पन्न होता है ऐसे ही इन ध्यानों से पाप उत्पन्न होते हैं। ऐसे निंद्य दुर्ध्यानों को जिसका कि अंत में खोटा फल है उसको हे धीर वीर पुरुष ! तू शीघ्र ही छोड़ दे। जब तक मनुष्य को भीतर में आत्मकल्याण की सच्ची रुचि नहीं जगती है तब तक यह धर्मध्यान का भली प्रकार पात्र नहीं हो सकता है। पहिले चित्त में यह बात सोचना चाहिए कि संसार में अनेक योनियों में भ्रमण करते-करते आज बडे सुयोग से हम मनुष्य हुए हैं, युक्त समागम प्राप्त कर लिया है, अब इस जिंदगी को धर्मसाधना में व्यतीत करना चाहिए। धनवैभव या अन्य-अन्य विषयों के संरक्षणभूत साधन ये इस मेरे को क्या हित कर सकते हैं? इनका तो परिणाम ही क्लेशरूप है। इन समागमों की रुचि में कुछ भी लाभ नहीं है। जिंदगी से जी रहे हैं और इन बाह्य समागमों में कुछ अपना महत्त्व जाना, अतिशय समझा तो हे क्या? एक दिन तो वह आयगा कि जब कि इस भव को छोड़कर आगे जाना पड़ेगा। फिर क्या हालत गुजरेगी? क्या इसी प्रकार संसार में जन्ममरण करना, दु:खी होना ऐसी ही जिंदगी बिताना अच्छा है? भाई अंतरंग में शुद्ध हृदय से यह भावना जगना चाहिए कि मुझे अपने आत्मा का उद्धार करना है और इस ही शुद्ध भावना पर ऐसी परिणति बन जायगी कोई कि केवल शुद्ध ज्ञानप्रकाश का ही अनुभव हो रहा होगा। तो इन दुर्ध्यानों को त्यागकर जो अच्छा ध्यान है, जो आत्मा से संबंध रखने वाला ध्यान है ऐसे ध्यान में अपने आपका मोड़ लाना चाहिए। संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति परिणाम होना चाहिए। मनुष्य सोचते हैं कि अब करीब 10 वर्ष का काम है, जब काम सम्हल जायगा तो खूब धर्मध्यान में लगेंगे। वे सोचे हुए दिन भी धीरे-धीरे गुजर जाते, पर अभी भी तृष्णा का अंत नहीं आता है, आकांक्षाएँ वैसी ही बनी रहती हैं। यों ही सारा जीवन व्यर्थ में गुजर जाता है। अरे पाया है यह दुर्लभ समागम तो इसका खूब लाभ उठावें। लाभ यही है कि आत्मस्वरूप का अधिकाधिक चिंतन कर लें, पर चेतन अचेतन पदार्थों से मोह रागद्वेष हटा लें, इन बाहरी विभूतियों से कुछ भी हित न होगा ऐसी दृढ़ता बना लें, ऐसे शुद्ध परिणामों को करना हम आप सब कल्याणार्थियों का कर्तव्य है। उससे ही ऐसी विचित्रता जगेगी कि आत्मा का विशुद्ध ध्यान बन सकेगा जिससे संसार के संकट समस्त एक साथ छूट जायेंगे।