वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1261
From जैनकोष
तदेव प्रक्रमायातं सविकल्पं समासत:।
आरंभफलपर्यंतं प्रोच्यमानं विबुध्यताम्।।1261।।
वही धर्मध्यान आचार्यों की परिपाटी से अर्थात् गुरु के आम्नाय से चला आया भेद सहित संक्षेप से यहाँ वर्णन करेंगे। वास्तव में जो ऊपर बात कही है वह धर्मध्यान के आदि से अंत तक होनी चाहिए। संक्षेप में कहा गया है। मन अपने वश होना, इंद्रिय के विषयों से विरक्ति होना ये दो बातें बन सकें तो उसके धर्मध्यान बनता है। खूब खोज लो इन दो में से गलती क्या है? यह चित्त क्रोध में रहा करता है तो वहाँ धर्मध्यान कहाँ बनेगा। मन वश में नहीं रहता, विषयों में मन फँसा रहता वहाँ धर्मध्यान कहाँ से बनेगा? ये विषयकषाय जिसके शिथिल हुए उसके धर्मध्यान भी नहीं है और धर्मध्यान भी यही है कि विषयकषायों में परिणति न जाय। अपने आपके स्वरूप की प्रतीत रहा करे, वह धर्मधारण है।