वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1281
From जैनकोष
विकीर्यते मन: सद्य: स्थानदोषेण देहिनाम्।
तदेव स्वस्थतां धत्ते स्थानमासाद्य बंधुरम्।।1281।।
अगर सदोष स्थान मिले तो प्राणियों का मन शीघ्र विकार को प्राप्त हो जाता है। जिसका मन विकार न चाहे वह विकार की अवस्था में क्यों रहेगा और जो रहता है विकार के वातावरण में, सदोष स्थान में तो समझना चाहिए कि इसके चित्त में खुद भी दोष का लगाव है। तो पुरुषों का मन सदोष स्थान में रहकर शीघ्र विकार को प्राप्त हो जाता है और उत्तम स्थान को प्राप्त करके मन स्वस्थता को धारण कर लेता है। स्वस्थ होना अभीष्ट है। सर्वप्रथम दूषित स्थानों का उपदेश है कि ध्यान की अध्ययन की सिद्धि करने वाले पुरुषों को ऐसे स्थान में रहना चाहिए।