वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1309
From जैनकोष
केचिज्ज्वालावलीढा हरिशरभगजव्यालविध्वस्तदेहा:,केचित्क्रूरादिदैत्यैरदयमतिहताश्चक्रशूलासिदंडै:।
भूकंपोत्पातवातप्रबलपविधनव्रातरुद्धास्तथान्ये,क्रृत्वा स्थैर्य समाधौ सपदि शिवपदं नि:प्रपंचं प्रपन्ना:।।1309।।
जिनका चित्त वश में है उनको बड़े-बड़े कठिन उपसर्ग भी आ जायें तब भी वे अपने पथ से विचलित नहीं होते हैं। सुना गया हे कि पूर्वकाल में अनेक महामुनि अग्नि की ज्वाला की पंक्ति से जलकर समाधि में दृढ़ रहने से तत्काल मोक्ष को प्राप्त हो गए। जलती हुई अग्नि में उन्हें पटक दिया, पर ध्यान उनके विशुद्ध रहा, भेदविज्ञान रहा, समस्त विश्व से निराला, शरीर से भी निराला केवल ज्ञानस्वरूपमात्र मैं हूँ इस प्रकार का उनके यथार्थ संकल्प रहा, उसके प्रताप से वे इतने बड़े उपसर्ग में शीघ्र मोक्ष को प्राप्त हुए। कोई मुनि ऐसे हुए जिनको सिंहादिक क्रूर जानवरों ने भखा लेकिन वे अपने स्वरूप से विचलित नहीं हुए और वे समतापरिणाम धारण करके तत्काल मोक्ष को प्राप्त हुए। तथा कितने ही मुनि क्रूर, वीर, दैत्य, देव, चक्र, शूल, तलवार दंड से निर्दयता के साथ मारे गए लेकिन समाधि में लीन रहने के कारण तत्काल मोक्ष को प्राप्त हुए, ऐसे ही कितने ही मुनि भूमि कंपन के उत्पात से, प्रचंड आँधी के चलने से, बड़ा वज्रपात होने से और बड़े उपसर्गों को जीत करके मोक्ष को गए। ऐसे-ऐसे कठिन उपसर्गों को जीतने का कारण था अपने स्वरूप की खबर। जब केवल ज्ञानस्वरूप में ही अपने आपका अनुभव किया तो फिर उपद्रव क्या रहा? उपसर्ग क्या रहो? वे तो अपने आनंद रस में तृप्त रहते थे। ऐसे भी अनेक मुनि नाना प्रकार के उपसर्गों को सहकर प्रपंचरहित मोक्षपद को प्राप्त हुए, ऐसे उत्तम संघनन वाले के आसन का नियम नहीं है पर यह बात बता रहे थे कि ध्यान के लिए आसन कैसा लगाना चाहिए? सो आसन का विधान तो बताया पर जिनके वज्रवृषभनाराचसंघनन है, जिनका शरीर अद्भुत, वज्र की कीली, ऐसा वज्रमय जिनका शरीर है, तत्त्वज्ञानी हैं, विरक्त हैं उनके आसन का कोई नियम ही नहीं रहा। किसी को आग में पटका होगा तो क्या आसन मारकर पटका होगा? एकदम उठाया और पटक दिया। ध्यान की खूबी हे कि उन्होंने ऐसा विशुद्ध ध्यान किया कि वे अटपट आसन में रहकर ही मोक्ष को प्राप्त हुए। किसी को पानी में पटक दिया, छेद किया, कोल्हू में पेल दिया। वहाँ कोई आसन है क्या, पर वे मोक्ष को प्राप्त हुए। अत: वज्रकाय पुरुषों के आसन का कोई नियम नहीं है। आचार्य महाराज कह रहे हैं कि पूर्वकाल में मनुष्य का जो धैर्य, बल, वीर्य था वह इस काल में नहीं है। इसी तरह पहिले जैसी स्थिरता वर्तमान काल के मनुष्य स्वप्न में भी करने में असमर्थ हैं। और जितना जो कुछ जो लोग इस समय करते हैं वे धन्य हैं। जैसे आजकल साधुवों की हर एक कोई चर्चा निंदा करने लगता है― अजी साधुवों को तो वन में रहना चाहिए, उन्हें नगर में रहने से क्या मतलब? यों अनेक प्रकार की जो आलोचना करते हैं सो वे स्वयं तो साधु होने की मन में उमंग नहीं रखते और तब फिर उन्हें पता क्या है कि कैसे क्या निभता है? यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि पहिले जैसी स्थिरता, पहिले जैसा उपसर्ग विजय आजकल संभव नहीं है फिर भी, उस दिशा में जो जितना प्रयत्न करते हैं वे मुनि धन्य हैं। देखो मूल तत्त्व यह बताया कि जिसके तत्त्वज्ञान है और तत्त्वज्ञान के कारण वैराग्य उपजा है ऐसे मुनीश्वरों को उपसर्ग के बीच में सफलता प्राप्त होती है और जो यों ही अपने गुजारे के लिए अथवा बचाव के लिए भेष बना लेते हैं उनको तो उस भेष का निभाना ही कठिन है, उपसर्गों पर विजय प्राप्त करने की बात तो दूर रही। सम्यग्ज्ञान जगे बिना, अपने आपके मन को वश में किए बिना वह आत्मस्फूर्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।