वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1327
From जैनकोष
पर्यंकदेशमध्यस्थे प्रोत्ताने करकुद्मल।
करोत्युफुल्लराजीवसन्निभे च्युतचापले।।1327।।
अत्यंत निश्चल सौम्यभाव को लिए स्पंदरहित हैं मंद तारे जिसमें, ऐसे दोनों नेत्रों को ध्यानार्थी योगी नासिका के अग्रभाग पर ठहरते हैं। पद्मासन पहिले तो वीरों का आसन बताया है, फिर हाथ किस तरह रखे यह दिखाया, अब मुख मुद्रा कैसी हो यह बात इस श्लोक में बता रहे हैं। दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर हो और वह एक सौम्य मुद्रा को लिए हो। क्रोध, मान आदि की मुद्रा न हो किंतु सुगम सौम्य मुद्रा हो और फिर आकाश की जो तारायें हैं वे स्पंदरहित हों अर्थात् अगल-बगल ऊँचे-नीचे जोर से न जलें किंतु जलें तो बिल्कुल मंद, वही के वही, थोड़ा सा स्थान बदलकर चलें ऐसे निष्पंद तारावों से रहित नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रहती है ध्यान अवस्था में। वहाँ ध्यान साधना के लिए लोग अनेक उपाय करते हैं अथवा एक बात यह भी है कि सामने भींत पर कोई एक बिंदु देख ले और दृष्टि से उस मुद्रा को ही बहुत देर तक देखते रहें तो इस प्रक्रिया में मन पर ऐसा असर होता है कि वह मन बाहरी पदार्थों में नहीं अटकता। विकल्प उसके दूर हो जाते हैं। और जो नासिका के अग्रभाग पर एक सुगम रीति से दृष्टि रखा, उसमें भी यह गुण तो है कि बाहरी पदार्थों के विकल्प कम होते, पर साथ ही एक ऊँची बात यह भी है कि इससे कोई नया चिन्ह नहीं बनाना है। नाक तो अपने पास रहती है, उस पर दृष्टि रहे तो वह गुण आ जाता है, जो 20 हाथ दूर भींत पर कोई चिन्ह बनाकर उसे देखता रहता है। एक जगह दृष्टि लगाये रहने से बाहर की सुध यह छोड़ देता है और अपने आपके अंतर में प्रवेश करना हो इस तरह उसका यत्न होता है। तो ध्यान की मुद्रा में तीसरी बात यह कही है कि ध्यानार्थी पुरुष अपनी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर रखें और प्रसन्न होकर सौम्य मुद्रा से जहाँ आँखों का कटाक्ष न हो, यहाँ वहाँ चलना न हो और आँखों का जो मूल खास तारा है उस तारे में भी मंद-मंद ही स्पंद हो, चलन हो, ऐसी ध्यान की मुद्रा बताई गई है।