वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1338
From जैनकोष
निरुणद्धि स्थिरीकृत्य श्वसनं नाभिपंकजे।
कुंभवन्निर्भर: सोऽयं कुंभक: परिकीर्त्तित:।।1338।।
अपने कोष्ठ से पवन को अति यत्न ये मंदरूप बाहर निकाले उसका नाम है रेचक प्राणायाम। यों प्राय: करके लोग जल्दी ही तो श्वास ले लेते हैं और जल्दी ही उसे निकाल लेते हैं, पर प्राणायाम में श्वास भी बहुत धीरे-धीरे लेते जाते हैं। श्वास लेते रहने में समय अधिक लगे और फिर उस पवन को नाभिस्थान पर रोकना और छोड़ देना, धीरे-धीरे छोड़ना, ताकि छोड़ने में समय अधिक लगे, यह है प्राणायाम का विधान, पर लोग जल्दी ही श्वास लेते और जल्दी ही उसे छोड देते हैं। उसमें उपयोग की विशेषता नहीं हो पाती। तो उस कुंभक में भरे हुए पवन को बड़े यत्न से धीरे-धीरे अपने उदर कोष्ठ को बाहर निकालना इसका नाम रेचक बताया है।