वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 135
From जैनकोष
संकल्पानंतरोत्पंनं दिव्यं स्वर्गसुखामृतम्।
निर्विशत्ययमेकाकी स्वर्गश्रीरंजिताशय:।।135।।
स्वर्गसुख में भी अकेलापन―यह जीव अकेला ही स्वर्गों की शोभा से रंजित हृदय वाला होकर देवोपनीत सुख को संकल्पमात्र से भोगता है। देव का सुख संकल्प के अनंतर उत्पन्न हो जाता है। ये सब सांसारिक बड़प्पन की बातें हैं। जैसे यहाँ अनेक आदमी ऐसे समर्थ हैं, ऐसे वैभवशाली हैं कि जो चाहें जैसी बात, करीब-करीब तुरंत बना डालते हैं। स्वर्गों में, देवों में तो वहाँ कुछ श्रम भी नहीं करना, आजीविका के कार्य खेती दुकान आदि भी नहीं करना है, केवल एक भोगने-भोगने का ही वहाँ काम पड़ा है, करने का कुछ है ही नहीं, लेकिन यह बात नहीं है कि वे कुछ करते नहीं हैं। वे ईर्ष्या करते, स्नेह करते, द्वेष करते, बस भावों भावों को ही वासना का काम करते हैं। उन्हें मकान बनाने का काम नहीं है, संकल्प किया, भाव बनाया और जैसा चाहा वैसा मनमाना सुख भोगने लगे। यह बात भी वे जीव अकेले ही किया करते है।
सुख दु:ख दोनों में जीव का अकेलापन―भैया ! जैसे दु:ख में कोई साथी नहीं होता ऐसे ही सुख में भी कोई साथी नहीं होता अर्थात् दु:ख की तरह सुख को भी जीव अकेला ही भोगते हैं। भले ही किसी सुख के प्रसंग में दो चार इष्टजन मिलकर सुख भोगते हों, पर वे सबके सब अपना ही अपना सुख अकेला रहकर भोगते हैं, कोई किसी के न सुख का साथी है और न दु:ख का साथी है। यहाँ लोग कहते हैं कि हमारा इतने लोगों से परिचय है। अरे कहाँ परिचय है? सब एक स्वार्थसाधना, विषयसाधना, कषायों की अनुवृत्ति का झमेला है और इस कारण लग रहा है कि हमारे बहुत से साथी हैं। वस्तु का स्वरूप स्वकीय स्वकीय एकत्वमय है। किसी वस्तु का कोई दूसरा पदार्थ साथी हो ही नहीं सकता। तब इस जीव का भी साथी कौन है? अकेला ही सुख दु:ख यह जीव भोगता है, अकेला ही जन्म-मरण करता है। सर्वत्र यह जीव अकेला है। स्वर्गों में गया तो वहाँ भी इस जीव ने अकेला स्वर्ग सुख को भोगा।