वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1368
From जैनकोष
सर्व प्रवेशकाले कथयंति मनोगतं फलं पुंसाम्।
अहितमतिदु:खनिचितं त एव नि:सरणवेलायाम्।।1368।।
अब मेरे कार्यों में शुभ अशुभ आना, अब इसके प्रवेश और निकलने के विषय में कह रहे हैं। जब श्वास भीतर से ली जा रही हो उस समय पुरुषों के समस्त फल सिद्ध होते हैं और जिस समय श्वास बाहर से निकल रही हो उस समय में कोई पूछे अथवा कुछ अपना विचार चले तो समाधान होगा कि वह सिद्धि न होगी। समस्त मंडलों की वायु प्रवेश के काल में तो शुभ फल देने वाली है और निकलने के समय में स्वयं को भी और पूछने वाले को भी अनिष्ट और अहित का संकेत करती है। ये सब प्राणायाम की सिद्धि की बातें हैं। इनमें तत्त्वज्ञानी पुरुष नहीं फँसता, उसे तो एक आत्महित की ओर दृष्टि लगी है। ध्यानार्थी पुरुष अपना अच्छा ध्यान बना लेते हैं, अपने श्वास पवन को भी हृदय में नाभिमंडल में रोक लेते हैं तो वे सब श्वास किस प्रकार के हैं और उससे कैसा फल मिला करता है? इसका वर्णन इस समय चल रहा है।