वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 137
From जैनकोष
मित्रपुत्रकलत्रादि कृते कर्म करोत्ययम्।
यत्तस्य फलमेकाकी भूड्क्ते श्वभ्रादिषु स्वयम्।।137।।
मोह कर्म का कुफल―यह जीव मित्र, पुत्र, स्त्री आदि के निमित्त, जो कुछ भी कर्म करता है उसके फल को नरकादिक गतियों में जन्म लेकर वह अकेला ही भोगता है। नरकगति में जन्म लेने पर यदि कुछ थोड़ा ज्ञान की वृत्ति में चलते हैं तो भी जब समझते हैं कि जिन परिवार मित्रजनों के लिए अनेक पापकर्म किए थे वे सब बिछुड़ गए। उनमें से कोई भी साथी नहीं हो रहा। यह सब में ही अपने दुष्कर्मों को अकेला ही भोग रहा हूँ। कदाचित् कोई कुटुंब का जीव उस ही बिल में उत्पन्न हो जाय तो वहाँ परस्पर एक दूसरे को देखकर ऐसा ही ज्ञान बनायेंगे जिससे परस्पर लड़ाई विवाद बने। जैसे माँ ने बच्चे की आँखों में अंजन ही लगाया था लेकिन बच्चे का जीव नरक में उत्पन्न होकर नरक में उत्पन्न हुये माँ के जीव के प्रति ऐसा सोचेगा कि इसने मेरी आँखें फोड़ने का यत्न किया था। उपकार की भी बात अपकार के रूप में वहाँ सोची जाती है।
भोगों का दुष्परिणाम―भैया ! यह सब मोह करना बहुत सस्ता लग रहा है। ये भोग विषय इस जीव को बड़े आसान जंच रहे हैं क्योंकि उदय है कुछ पुण्य का, अनुकूल साधन मिले हुए हैं, लौकिक दृष्टि का अधिकार भी बना हुआ है, यह सब आसान लगता है, किंतु इन सब विषय कषायों का, मोह भावों का फल अति कटुक होता है। ऐसे ही नरकादिक गतियों में जन्म लेकर उस समस्त फल को भोगना पड़ता है।
नरकरचना―ये नरक किस प्रकार के बने हुए हैं, उसके लिए ऐसा सोचो कि जैसे कोई मोटे काठ के खंड में जो कि मान लो 2 फिट लंबा चौड़ा है उसके भीतर ही चार छ: अंगुल नीचे कई जगह छिद्र हों, जिन छिद्रों का पता उस काठ के किसी ओर से न पड़ सके, ऊपर से देखो तो छिद्र न मालूम पड़े, किंतु भीतर ही छिद्र हों, फिर चार छह अंगुल बीच में छिद्र हो यों छोड़-छोड़कर बीच में छिद्र हो, ऐसे ही जानो यह पहिली पृथ्वी जितनी मोटी है उसमें से ऊपर के दो खंड तो देव के स्थान में निकल गये, नीचे के खंड की पृथ्वी में ऐसे 13 जगह नीचे नीचे चलकर वैसे बिल बने हुए हैं जिनका मुख पृथ्वी के किसी ओर नहीं हैं। वे बिल बहुत लंबे चौड़े हैं, लाखों करोड़ों अरबों कोसों के लंबे चौड़े हैं, इस कारण वे बिल से नहीं जँचते, लेकिन जिनका कहीं मुँह न हो, पृथ्वी के ऊपर स्थान न हो, पृथ्वी के भीतर ही स्थान हो वह तो बिल ही है, ऐसी पहिले नरक में 13 जगह रचनाएँ हैं। इसके नीचे कुछ कम एक राजू आकाश छोड़कर दूसरी पृथ्वी है। दूसरी पृथ्वी में 11 जगह ऐसी रचनाएँ हैं, इस प्रकार दो-दो पटल कम कम होते होते 7 वीं पृथ्वी में केवल एक ही जगह रचना है और वहाँ केवल 5 बिल हैं, एक बीच में और एक-एक चारों दिशाओं में।
नरक में क्लेश―उन नरकों में यह जीव बिल के ऊपरी हिस्से से अपने आप उत्पन्न होकर नीचे गिरता है वही उनके उत्पन्न होने की योनि है। औंधे मुँह नीचे गिरता है, कई बार उछलता है और थमता है तो चारों ओर से नारकी जीव उस पर टूट पड़ते हैं और यह भी उन पर टूटता है। नारकों से नारकी परस्पर लड़ते हैं। जैसे कि कुत्ता अन्य कुत्ते को देखकर लड़ने की बात दिमाग में ठानते हैं, यों नरक के नारकियों को मारने के लिए, दु:ख देने के लिये अनेक नारक जीव दाव लगाकर बैठे रहते हैं जो आपस में एक दूसरे को घात करते रहते हैं। ऐसी बड़ी दु:खद परिस्थिति में यह जीव जन्म ले लेता है। वहाँ यह जीव सब अपने दुष्कर्मों का फल अकेला ही भोगता है। यहाँ भी सभी जीव अपनी-अपनी कल्पनाएँ बनाकर अकेले ही दु:ख भोगा करते हैं।